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प्रवचन-सारोद्धार
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की चर्या भिन्न है। वे रुग्ण मुनि को परिचर्या के लिये गच्छ को सौंप देते हैं और गच्छवर्ती मुनि प्रासुक अन्न-पानी के द्वारा उनकी सेवा करते हैं ।।६२३-६२४ ।।
स्थविर कल्पी यथालंदिक एकपात्री तथा वस्त्रधारी होते हैं। जिनकल्पी यथालंदिकों को वस्त्र-पात्र की भजना होती है। वस्त्र-पात्र रखते भी हैं और नहीं भी रखते हैं ।।६२५ ।।
जघन्य से यथालंदिकों के ३ गण होते हैं। उत्कृष्ट से शतपृथक्त्व गण होते हैं। पुरुषों की अपेक्षा से जघन्य पन्द्रह पुरुष और उत्कृष्ट से सहस्त्र पृथक्त्व पुरुष होते हैं ।।६२६ ।।
यथालंदिकों के गण में न्यून होने पर अन्य मुनि को सम्मिलित करना पड़ता है। इस अपेक्षा से जघन्यत: प्रतिपद्यमान एक-दो ही होते हैं, किन्तु उत्कृष्टत: प्रतिपद्यमान सैकड़ों भी होते हैं ।।६२७ ।। पूर्वप्रतिपन्न यथालंदिक जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही कोटि पृथक्त्व होते हैं ॥६२८ ॥
-विवेचनलन्द = आगम के अनुसार लन्द काल का वाचक है। इसके तीन भेद हैं" (i) जघन्य-आर्द्र हाथ जितने समय में सूख जाये वह समय की अवधि जघन्य लन्द है । यद्यपि आगम में 'समय' को अति सूक्ष्म बताया है। सबसे जघन्य काल इतना सूक्ष्म है कि उसका कोई विभाग नहीं कर सकता। वह सर्वथा निरंश होता है पर यहाँ 'जघन्य लंद' से काल का वह निरंश भाग अपेक्षित नहीं है, किन्तु प्रत्याख्यान आदि नियम विशेष में उपयोगी 'कालविशेष' ही अपेक्षणीय है। पच्चक्खाण की सबसे जघन्य कालावधि जितने समय में आर्द्र हाथ सूख जाये इतनी ही है ।(यद्यपि समय बड़ा सूक्ष्म है, तथापि प्रत्याख्यान इत्यादि में समय का यही प्रमाण ग्राह्य है)।
(ii) उत्कृष्ट-पूर्व-क्रोड़ वर्ष (उत्कृष्ट से चारित्र का काल पूर्व-क्रोड़ का ही होता है)। (ii) मध्यम-जघन्य और उत्कृष्ट के बीच का काल-वर्ष, मास आदि ।
यथालंदिक जिनकल्प की तरह यह भी संयम साधना का विशेष प्रकार है। इसे स्वीकार करने वाले आत्मा भी जिनकल्पी की तरह पहले पाँच भावनाओं से स्वयं को भावित करते हैं, पश्चात् कल्प स्वीकारते हैं। कुछ बातों को छोड़कर शेष-साधना जिनकल्पी की तरह ही होती है। यथालंदिक गाँव को पेटा या अर्द्धपेटा आदि के रूप में कल्पित करके किसी एक वीथि में लगातार पाँच दिन तक भिक्षा के लिये जाते हैं, इसलिये वे यथालंदिक कहलाते हैं। उत्कृष्ट से एक साथ पाँच आत्मा इस कल्प को स्वीकार करते हैं ॥ ६११-६१३ ॥ जिनकल्पी और यथालंदिक में भेद
जिनकल्पी और यथालंदिक में निम्न चार बातों का अन्तर है
१. मासकल्प गच्छ-प्रतिबद्ध और गच्छ-अप्रतिबद्ध के भेद से यथालंदिक दो प्रकार के हैं। जिन्होंने यथालंद कल्प तो स्वीकार कर लिया किन्तु सूत्रार्थ सम्पूर्ण न होने से जो अभी तक गच्छ से जुड़े हुए हैं, वे गच्छ-प्रतिबद्ध हैं। इससे भिन्न जो यथालंद कल्प स्वीकार कर गच्छ से मुक्त हो चुके
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