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द्वार ७०
उत्कृष्ट काल है । मध्यमकाल अनेक प्रकार का है । यथालंदकल्प के सन्दर्भ में उत्कृष्ट काल पाँच अहोरात्र का है । यथालंदी पाँच दिन तक एक मोहल्ले में घूमते हैं इसलिये वे यथालंदी कहलाते हैं । उत्कृष्ट रूप से पाँच पुरुष एक साथ इस कल्प का स्वीकार करते हैं अतः इनका गण पाँच का ही होता है । तुलनादि रूप जो मर्यादायें जिनकल्प की हैं, प्रायः वे ही मर्यादायें इस कल्प की हैं । अन्तर केवल तीन विषय में है- सूत्राभ्यास, भिक्षाचर्या तथा मासकल्प में ।। ६११-६१४ ।।
यथादिक दो प्रकार के हैं-१. गच्छप्रतिबद्ध और २ गच्छ अप्रतिबद्ध |
गच्छ अप्रतिबद्ध-यथालंदिकों का शेष आचार जिनकल्पिकों के समान है पर काल के विषय में भेद है । यथा, शीतोष्णकाल में पाँच दिन और वर्षाकाल में चार मास पर्यंत यथालंदिक एकस्थान में स्थिर रहते हैं ।। ६१५ ।।
गच्छ प्रतिबद्ध-यथालंदिकों में अपेक्षाकृत अधिक भेद है । गच्छ प्रतिबद्ध यथालंदिकों का क्षेत्रावग्रह ५ कोश का है क्योंकि आचार्य का अवग्रह इतना होता है और आचार्य का क्षेत्रावग्रह ही यथादिकों का क्षेत्रावग्रह है । जिनकल्पियों की तरह उनका अलग से अवग्रह नहीं होता ||६१६ ॥ यथालंदिक एक वसति में पाँच दिन सतत रह सकते हैं। सम्पूर्ण गाँव को छः भागों में विभक्त करके प्रत्येक भाग में पाँच-पाँच दिन रहते हैं और भिक्षा के लिये भ्रमण करते हैं ।। ६१७ ॥ गच्छ प्रतिबद्ध और अप्रतिबद्ध दोनों प्रकार के यथालंदिकों के पुनः दो-दो भेद होते हैं - जिनकल्पी और स्थविरकल्पी | जिस यथालंदिक मुनि का सूत्रार्थ शेष रह जाता है, उसे गच्छ प्रतिबद्ध रहना पड़ता है । ६१८ ॥
यथालंदकल्प स्वीकार करने का शुभ मुहूर्त शीघ्र आ गया हो और सूत्रार्थ पूर्ण होने में अभी देर हो तो गच्छ प्रतिबद्ध रहना पड़ता है । कल्प स्वीकार करने के पश्चात् वाचनादाता गुरु के क्षेत्र से बाहर रहकर अगृहीत अर्थ को ग्रहण करे। आचार्य अपने स्थान से यथालंदिक को वाचना देने उनके स्थान पर आते हैं ।।६१९ ॥
यथालंदिकों को आचार्य स्वयं उनके स्थान पर जाकर वाचना देते हैं । यथालंदिकों द्वारा आचार्य के समीप आकर वाचना ग्रहण करने में अन्य मुनियों को वन्दन करने और न करने पर दोष लगता है तथा लोकापवाद भी होता है ||६२० ॥
यदि आचार्य यथालंदिक के क्षेत्र में जाने में असमर्थ हो तो यथालंदिक स्वयं अन्तरपल्ली, प्रतिवृषभ गाँव, मूल क्षेत्र से बाहर अथवा मूल वसति में आकर वाचना ग्रहण करे । मूल वसति में आचार्य एकान्त स्थान में यथालंदिक को वाचना दे । गच्छवर्ती मुनि बड़े होने पर भी यथालंदिक को वन्दन करे पर यथालंदिक उनको वन्दन न करे। शेष सूत्रार्थ को ग्रहण करने के पश्चात् यथालंदिक गच्छ से अलग होकर अपने आचार का पालन करते हुए इच्छानुसार विचरण करे ।। ६२१-६२२ ।। जिनकल्प स्वीकार करने वाले यथालंदिक रोगादि होने पर लेशमात्र भी चिकित्सा नहीं करते । । वे निष्प्रतिकर्मा होते हैं । यहाँ तक कि नेत्र का मल भी दूर नहीं करते । स्थविरकल्पी यथालंदिकों
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