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१२. प्रव्रज्या द्वार
१३. निष्प्रतिकर्मता द्वार
आँख का मल भी दूर नहीं करते ।
• घोर संकट में भी अपवाद का सेवन नहीं करते ।
१४-१५. भिक्षा या पथ द्वार
आहार और विहार तीसरे प्रहर में होता है, शेष काल में कायोत्सर्ग करते हैं । निद्रा काल अल्प होता है ।
जंघाबल क्षीण होने से यदि पारिहारिक विहार न कर सके और एक स्थान में रहना पड़े तो भी किसी प्रकार का अपवाद सेवन नहीं करते पर अपने कल्प के योग्य दोष रहित आराधना करते हैं ।। ६०९-६१० ॥
७० द्वार :
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कहा है कि - परिहारविशुद्धिकों को द्रव्यादि से सम्बन्धित विविध अभिग्रह नहीं होते । जब तक कल्प में हैं इसका उचित पालन ही इनके लिए अभिग्रह रूप है । इस कल्प में गौचरी आदि के नियम सर्वथा अपवाद - रहित हैं। इसका उत्कृष्ट रूप से पालन ही इनका विशुद्धिस्थान है
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यथाशक्ति उपदेश देते हैं, किन्तु दीक्षा किसी को नहीं देते क्योंकि इनका यही आचार है।
द्वार ६९-७०
लंदं तु होइ कालो सो पुण उक्कोस मज्झिम जहन्नो । उदउल्लकरो जाविह सुक्कई सो होइ उ जहन्नो ॥६११ ॥ उक्कोस पुव्वकोडी मज्झे पुण होंति एगठाणाईं । एत्थ पुण पंचरत्तं उक्कोसं होइ अहलंदं ॥६१२ ॥ जम्हा उ पंचरत्तं चरंति तम्हा उ हुंतिऽहालंदी | पंचेव होइ गच्छो तेसि उक्कोसपरिमाणं ॥ ६१३ ॥ जा चैव य जिणकप्पे मेरा सा चेव लंदियाणंपि । नातं पुण सुत्ते भिक्खायरिमासकप्पे य ॥६१४॥ अहलंदिआण गच्छे अप्पडिबद्धाण जह जिणाणं तु नवरं कालविसेसो उउवासे पणग चउमासो ॥६१५ ॥ गच्छे पडिबद्धाणं अहलंदीणं तु अह पुण विसेसो । उग्गह जो तेसिं तु सो आयरियाण आभवइ ॥६१६ ॥
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यथालंद
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