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प्रवचन-सारोद्धार
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न हो जाये इसलिए पूर्वपठित श्रुत का ही एकाग्र मन से सतत
परावर्तन करते हैं। ६. वेद द्वार
- प्रतिपद्यमान की अपेक्षा नपुंसकवेदी व पुरुषवेदी दोनों ही इस
कल्प को स्वीकार कर सकते हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा दोनों वेद वाले (श्रेणी के अभाव में) तथा अवेदी (श्रेणी चढ़ते समय)
होते हैं। • स्त्रीवेद में इस कल्प का निषेध है। कहा है कि—प्रवृत्तिकाल की अपेक्षा स्त्रीवेद को छोड़कर
शेष दोनों वेद में यह कल्प होता है और पूर्व-प्रतिपन्न की अपेक्षा सवेदी और अवेदी दोनों
इस कल्प में मिलते हैं। ७. कल्पद्वार
पारिहारिक स्थितकल्प में ही होते हैं। अस्थितकल्प में नहीं। अचेलत्व आदि दश कल्पों का नियमित पालन ‘स्थितकल्प' है तथा शय्यातर आदि चार का नियमित पालन व शेष छ: का अनियमित पालन अस्थितकल्प है। (विशेष ७७ व ७८ द्वार में
द्रष्टव्य है) ८. लिंग द्वार
द्रव्यलिंग और भावलिंग दोनों होते हैं अन्यथा समाचारी का
अभाव हो जायेगा। ९. ध्यान द्वार
प्रतिपद्यमान धर्मध्यान में ही होते हैं। पूर्व प्रतिपन्न आर्त, रौद्र में भी हो सकते हैं (किन्तु उनका आर्त्त,
रौद्र ध्यान निरनुबन्ध होता है। १०. गणना द्वार
गच्छ गच्छ पुरुष पुरुष
प्रतिपद्यमान पूर्वप्रतिपन्न प्रतिपद्यमान पूर्वप्रतिपन्न
जघन्य ३ गण शतश: २७ पुरुष
शतश:
उत्कृष्ट १०० गण
शतश: १००० सहस्रशः
९ साधुओं का समूह 'गण' कहलाता है। 'कल्प' स्वीकारने के पश्चात् कारण वश यदि कोई निकले और दूसरा उसके स्थान पर प्रवेश करे तो उस समय प्रतिपद्यमान पुरुष १ या २ से ९ भी होते हैं। इस प्रकार पूर्वप्रतिपन्न पुरुष भी १ या २ से ९ मिलते हैं। ११. अभिग्रह द्वार
- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, सम्बन्धी अभिग्रहों में से एक भी अभिग्रह पारिहारिकों के नहीं होता। निरपवाद रूप से अपने स्वीकृत कल्प का पालन करना ही उनका अभिग्रह है। पंचवस्तुक ग्रन्थ में
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