SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२० चारित्र प्रश्न- - परिहारविशुद्धिक आत्मा किस क्षेत्र व किस काल में होते हैं ? उत्तर - क्षेत्रादि का निरूपण करने के लिए आगम ग्रन्थों में अनेक द्वार हैं। पर हम ग्रन्थ विस्तार भय से शिष्यों के अनुग्रहार्थ कुछ ही द्वारों का निरूपण करेंगे । १. क्षेत्रद्वार २. कालद्वार जन्म व सद्भाव दोनों की अपेक्षा से ५ भरत व ५ ऐरवत में होते हैं । • जिनकल्पी की तरह पारिहारिकों का संहरण नहीं हो सकता अतः उनका अस्तित्व सभी कर्मभूमि या अकर्मभूमि में नहीं होता । तथाविध स्वभाव के कारण विदेह में भी इस कल्प का स्वीकार कोई नहीं करता । • सद्भाव अर्थात् जिस क्षेत्र में कल्प का स्वीकार किया जाये । जन्मत: अर्थात् जिस क्षेत्र में पारिहारिक का जन्म हो । ३. तीर्थद्वार ४. पर्याय द्वार अवसर्पिणी काल में जन्म की अपेक्षा 'परिहार - विशुद्ध' चारित्री तीसरे चौथे आरे में तथा सद्भाव की अपेक्षा पाँचवें आरे में भी होते हैं । उत्सर्पिणीकाल में जन्म की अपेक्षा दूसरे, तीसरे व चौथे आरे में तथा सद्भाव की अपेक्षा तीसरे व चौथे आरे में होते हैं । प्रतिभाग काल (नो उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी) में यह कल्प नहीं होता क्योंकि प्रतिभागकाल. महाविदेह में ही है और वहाँ इस कल्प को स्वीकार करने वाला कोई नहीं होता । निश्चित रूप से तीर्थंकर के शासन में ही यह कल्प स्वीकार किया जाता है । शासन की स्थापना से पूर्व या विच्छेद होने के बाद यह कल्प कोई नहीं स्वीकारता । जातिस्मरणादि के द्वारा भी इसका स्वीकार कोई नहीं करता । परिहारविशुद्ध संयमी का जघन्य गृहस्थ पर्याय २९ वर्ष तथा संयम पर्याय २० वर्ष का होना चाहिये । उत्कृष्ट से दोनों पर्याय देशोन पूर्वकरोड़ वर्ष के हैं 1 यहाँ सूत्र में इस कल्प को स्वीकार करने वाले की गृहस्थ पर्याय ३० वर्ष व संयम पर्याय १९ वर्ष का बताया है, वह असंगत प्रतीत होता है, क्योंकि कल्पभाष्य से विरोध आता है I कल्पभाष्य में गृहस्थ पर्यायं २९ वर्ष तथा दीक्षा पर्याय २० वर्ष ही बताया है I अपूर्व आगम के अभ्यासी नहीं होते किन्तु स्वीकृत कल्प की उचित आराधना द्वारा कृतकृत्य बनते हैं । मन अशुभ में प्रवृत्त For Private & Personal Use Only ५. आगम द्वार Jain Education International द्वार ६९ परिहार विशुद्धि तप करने वाले मुनि का चारित्र भी तप विशेष द्वारा शुद्ध हो जाने से परिहारविशुद्धि चारित्र ही कहलाता हैं । ➖➖➖➖ - - www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy