SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचन-सारोद्धार ३१९ यह तप अकेला व्यक्ति नहीं कर सकता। सामान्यत: यह कल्प एक साथ नौ आत्मा स्वीकार करते हैं। ४ निर्विशमानक = तप करने वाले, ४ निर्विष्टकायिक = तपस्वियों की परिचर्या करने वाले, और १ वाचनाचार्य = तपस्वियों व परिचारकों को वाचना देने वाला-इस प्रकार ९ व्यक्ति होते हैं। कालभेद से त्रिविध तप काल १ ग्रीष्मकाल २ शीतकाल ३ वर्षाकाल जघन्य चतुर्थ भक्त षष्ठ भक्त अष्टम भक्त मध्यम षष्ठ भक्त अष्टम भक्त दशम भक्त उत्कृष्ट तीनों कालों में आयंबिल से पारणा अष्टम भक्त होता है। अन्तिम ५ एषणा में से दशम भक्त अभिग्रहपूर्वक एक से आहार और द्वादश भक्त एक से पानीग्रहण करते हैं। वाचनाचार्य और परिचारक प्रतिदिन आयंबिल करते हैं। वे भी अभिग्रहपूर्वक आहार पानी ग्रहण करते हैं ।। ६०२-६०५ ॥ ४ मुनि छ: मास तक तप करते हैं तथा ४ उनकी परिचर्या करते हैं। पश्चात् तप करने वाले परिचर्या करते हैं और परिचारक छ: मास तक तपस्या करते हैं। तत्पश्चात् वाचनाचार्य छ: मास तक तप करता है तथा शेष आठ में से एक वाचनाचार्य बनता है और शेष सात उनकी परिचर्या करते हैं। इस प्रकार १८ मास में यह तप पूर्ण होता है ।। ६०६-६०८ ॥ तप पूर्ण होने के बाद इच्छा हो तो पुन: यही तप स्वीकार करते हैं, जिनकल्पी बनते हैं अथवा गच्छ में सम्मिलित हो जाते हैं। पारिहारिकों के दो भेद हैं(i) इत्वरिक - एक बार परिहार-विशुद्धि तप को पूर्ण करने के पश्चात् पुन: उसी तप को या गच्छ को स्वीकार करने वाले इत्वरिक हैं। (ii) यावत्कथिक - परिहार-विशुद्धि की पूर्णता के बाद तुरन्त जिनकल्प स्वीकार करने वाले यावत्कथिक हैं। कल्प के प्रभाव से इत्वरिक को देव, मनुष्य, तिर्यंचकृत उपसर्ग एवं मारणान्तिक रोग नहीं होते हैं। जिनकल्प स्वीकार करने वाले जिनकल्प के आचार का पालन करते हैं। यावत्कथिक को उपसर्ग एवं रोगादि होने की सम्भावना रहती है। पंचवस्तु और बृहत्कल्पभाष्य में कहा है कि इत्वरिकों को उपसर्ग, रोग व वेदना नहीं होती है किन्तु यावत्कथिकों को उपसर्गादि की सम्भावना रहती है। . यह तप किसके पास स्वीकार किया जाए? • तीर्थकर के पास या जो तीर्थंकर के पास तप कर चुका हो उसके पास । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy