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प्रवचन-सारोद्धार
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(ii) विशेष कारण से आचरण करने योग्य करण है, जैसे पिण्डविशुद्धि आदि। क्योंकि ये 'गौचरी' आदि ग्रहण करते समय ही उपयोगी हैं ॥ ५९६ ।।
६८ द्वार:
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गमन-शक्ति
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अइसयचरणसमत्था जंघाविज्जाहिं चारणा मुणओ। जंघाहिं जाइ पढमो निस्सं काउं रविकरेऽवि ॥५९७ ॥ एगुप्पाएण गओ रूयगवरंमि य तओ पडिनियत्तो। बीएणं नंदीसरम्मि एइ तइएण समएणं ॥५९८ ॥ पढमेण पंडगवणं बीउप्पाएण नंदणं एइ। तइउप्पाएण तओ इह जंघाचारणो एइ ॥५९९ ॥ पढमेण माणुसोत्तरनगं तु नंदीसरं तु बीएणं । एइ तओ तइएणं कयचेइयवंदणो इहयं ॥६०० ॥ पढमेण नंदणवणे बीउप्पाएण पंडगवणंमि। एइ इहं तइएणं जो विज्जाचारणो होई ॥६०१॥
-गाथार्थजंघाचारण-विद्याचारण की गमन शक्ति–जंघा और विद्या के द्वारा विशिष्ट रूप से गमनागमन करने में समर्थ मुनि चारण कहलाते हैं। जंघाचारण सूर्यकिरणों का अवलंबन कर गमनागमन कर सकते हैं ।।५९७ ॥
रुचकवर द्वीप जाते समय जंघाचारण मुनि एक ही डग में वहाँ पहुँच जाते हैं पर आते समय दो डग भरते हैं। दूसरे डग में नन्दीश्वर द्वीप में आते हैं और तीसरे में अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं। मेरुशिखर पर जाते समय एक डग में पंडकवन में पहुँच जाते हैं परन्तु आते समय एक डग में नन्दनवन में आते हैं तथा दूसरे डग में अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं ।।५९८-५९९ ।।
विद्याचारण मुनि पहले डग में मानुषोत्तर पर्वत पर, दूसरे डग में नन्दीश्वर द्वीप में, चैत्यों को वन्दन कर पुन: एक ही डग में अपने स्थान पर पहुंच जाते हैं। मेरु पर जाते समय प्रथम डग में नन्दनवन में पहुंचते हैं। द्वितीय डग में पंडकवन में जाते हैं। वहाँ चैत्यों की वन्दना करके एक ही डग में स्वस्थान में लौट आते हैं।६००-६०१ ।।
-विवेचनचारण-गमन-आगमन की लब्धि से सम्पन्न ।
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