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द्वार ६७
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आठवीं प्रतिमा
नवमी प्रतिमा
दशमी प्रतिमा
- १. यह प्रतिमा ७ अहोरात्रि की है। इस प्रतिमा में चौविहार
उपवास व पारणे में आयंबिल होता है। आयंबिल में दत्ति का नियम नहीं है। २. गाँव के बाहर सीधा या करवट लेकर शयन करे अथवा सुखासन में बैठे। ३. देव-मनुष्य-तिर्यंचकृत घोर उपसर्गों को सहन करे । ४. तन-मा से अडिग रहे । शेष पूर्व की तरह ॥ ५८२-५८३ ॥ तप, पारणा आदि पूर्ववत्, आसन उत्कटुक तथा शयन विषम लकड़ी की तरह, केवल शिर और पाँवों की एड़ी ही भूमि को छूए अन्य अंग नहीं अथवा पीठ भूमि का स्पर्श करे, अन्य अंग नहीं अथवा शवासन से शयन करे। उपसर्गों को शान्तिपूर्वक
सहन करे ॥ ५८४ ॥ - तप, पारणा, बाहर रहना पूर्ववत् । आसन गोदोहासन (गाय को
दुहते समय जो मुद्रा होती है) अथवा वीरासन अर्थात् दृढ़ संहननवालों का आसन, जैसे—धरती पर पाँव रखकर, सिंहासन पर बैठे हुए की तरह शरीर को मोड़कर रखना। अथवा बांया पाँव दाहिनी जांघ पर और दाहिना पाँव बांयीं जांघ पर रखकर, नाभि को स्पर्श करती हुई दाहिनी हथेली को बायीं हथेली पर सीधी रखना (वीरासन), अथवा आम की तरह वक्राकार बैठना । इस प्रकार ७ अहोरात्रि वाली तीनों ही प्रतिमायें कुल २१ दिन
में सम्पूर्ण होती हैं ॥ ५८५ ॥ - यह प्रतिमा अहोरात्रि प्रमाण है। गाँव या नगर से बाहर काउस्सग्ग
ध्यान में खड़े रहकर इस प्रतिमा को वहन किया जाता है। अहोरात्रि के अन्त में छट्ठभक्त करने से यह प्रतिमा तीन दिन में
पूर्ण होती है। - जिस तप में धारणे व पारणे के दिन एकासन तथा मध्य में दो
उपवास हो वह छट्ठभक्त है। इस तप में दो उपवास के ४ भक्त तथा दो एकासन के २ भक्त इस प्रकार ६ टंक का भोजन त्यागा जाता है अत: इसे छट्ठ भक्त कहते हैं। . इस प्रतिमा का वहनकाल एक रात का है। यह प्रतिमा चौविहार अट्ठम भक्त करके पूर्ण की जाती है। प्रतिमावाही नगर या गाँव के बाहर कुब्जवत् शरीर को झुका कर नदी आदि के विषम
ग्यारहवीं प्रतिमा
छट्ठभत्त
बारहवीं प्रतिमा
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