SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचन - सारोद्धार ३०९ नहीं होनी चाहिये। योग्य दात्री भी एक पाँव देहली के भीतर और एक पाँव बाहर रखे हुए हो तो ही उससे भिक्षा लेना कल्पता है । • अविच्छिन्न रूप से पात्र में जितना दिया जाये वह एक दत्ति कहलाती है ।। ५७८ ॥ • प्रतिमाधारी को चलते-चलते जहाँ सूर्यास्त हो जाये वहाँ से एक कदम भी आगे या पीछे जाना नहीं कल्पता, सूर्योदय तक वहीं रुकना पड़ता है I • जहाँ लोगों को ज्ञात हो कि ये 'प्रतिमाधारी' हैं वहाँ एक अहोरात्रि ठहरे और जहाँ लोगों को मालूम न हो, वहाँ एक, दो रात भी ठहर सकते हैं । • मार्ग में हिंसक जंतु सामने आ जाये तो भी मार्ग न छोड़ें क्योंकि हिंसक जीव वहाँ भी पीछा करेंगे, इससे वनस्पति आदि के जीवों की विराधना होगी। यदि जन्तु हिंसक न हो तो मार्ग छोड़ा जा सकता है, क्योंकि वह पीछा नहीं करता । • सुविधा की दृष्टि से धूप से छाया में और छाया से धूप में नहीं जाये । • प्रतिमाकाल पर्यन्त अखण्डित रूप से ग्रामानुग्राम विहार करते हैं । • शय्या, संस्तारक या उपाश्रय की याचना हेतु सूत्र - अर्थ सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर देने हेतु, स्वपर के संशय निवारण हेतु तृणकाष्ठादि की अनुज्ञा हेतु एक या दो बार बोलना कल्पता है पर अनावश्यक बातचीत करना सर्वथा नहीं कल्पता । • निम्नांकित तीन प्रकार की वसति में ही वास करना कल्पता है । (i) पथिक- शाला में, जहाँ योगी, संन्यासी आदि आकर रहते हों, (ii) खुले घर में अर्थात् ऐसे घर में जिसके द्वार, दीवारें और छत व्यवस्थित न हों । (iii) वृक्ष के नीचे, दोषों से रहित करीर आदि के पेड़ के नीचे । • वसति में आग लगने पर भी बाहर न निकले। कोई दूसरा खींचकर निकाले तो निकले । पाँव में काँटा, लकड़ी का टुकड़ा, काँच, कंकर आदि चुभ गया हो तो भी न निकाले । आँख का मैल, रेत या कचरा आदि न निकाले । हाथ, पाँव आदि न धोये । अन्य मुनि आगाढ़ कारण वश हाथ, पाँव, मुँह आदि धो सकते हैं ।। ५७९-५८० ।। इस प्रकार पहली प्रतिमा पूर्ण हो जाने पर प्रतिमाधारी गच्छ में पुन: सम्मिलित होने हेतु आचार्य के पास आता है । आचार्य भी उसका आगमन सुनकर राजा एवं संघ को निवेदन करते हैं कि 'प्रतिमारूप महान् तप को करने वाला तपस्वी मुनि यहाँ आ रहा है।' यह सुनकर संघ सहित राजा मुनि को महोत्सवपूर्वक नगर में प्रवेश कराता है । तप - बहुमान, श्रद्धा वृद्धि एवं शासन प्रभावना के लिये यह आवश्यक है। दूसरी प्रतिमा से सातवीं तक Jain Education International शेष पूर्ववत्, केवल अन्न-पानी की दत्ति दो-दो होती है । इस प्रकार तीसरी प्रतिमा में आहार पानी की दत्ति तीन-तीन होती है। चौथी में चार-चार यावत् सातवीं में सात-सात दत्ति होती है ।। ५८१ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy