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________________ ३०८ प्रतिमाओं का वहन काल व परिकर्म काल तुल्य है । पहली - दूसरी प्रतिमा और उनका परिकर्म तीसरी-चौथी प्रतिमा और उसका परिकर्म पाँचवी छठी व सातवीं प्रतिमा व उनका परिकर्म आठवीं-नौवीं और दसवीं प्रतिमा और उनका परिकर्म ११वीं प्रतिमा और उसका परिकर्म १२वीं प्रतिमा और उसका परिकर्म प्रथम सात प्रतिमायें, परिकर्म सहित नौ वर्ष में पूर्ण होती हैं । द्वार ६७ = १ वर्ष में पूर्ण होता है । ( वर्षाकाल में प्रतिमाओं का वहन व परिकर्म नहीं होता) = २ वर्ष में पूर्ण होता है । = ६ वर्ष में पूर्ण होता है । ( पहले वर्ष में परिकर्म व दूसरे वर्ष में प्रतिमा - वहन) = १४-१४ दिन में होता है । (७ दिन प्रतिमा के व ७ दिन परिकर्म के) = २ अहोरात्र में पूर्ण होता है । = २ रात्रि में पूर्ण होता है । ७. ज्ञान–प्रतिमा वहन करने वाला आत्मा जघन्य से नवमें पूर्व की आचार वस्तु तक का ज्ञाता होना चाहिये । इससे न्यून श्रुत वाला योग्य कालादि का ज्ञान नहीं कर सकता । उत्कृष्ट से कुछ कम दशपूर्व का ज्ञाता होना आवश्यक है। पूर्ण दशपूर्व का ज्ञाता धर्मदेशना द्वारा शासन की महान प्रभावना करने वाला होने से उसे प्रतिमा वहन नहीं करना चाहिये । ८. व्युत्सृष्टदेह — शारीरिक ममत्त्व का त्यागी । ९. जिनकल्पीवत् — जिनकल्पी की तरह देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी उपसर्गों को सहन करने वाला । १०. अभिग्रही - पिण्डैषणा के सात प्रकार हैं, उनके अन्तिम पाँच प्रकार में से एक से आह्वार ग्रहण करे और दूसरे से पानी ले । विवक्षित दिनों में पाँच में से मात्र दो का ही अभिग्रह करे । आहार अलेपकृत —–वाल, चना आदि ही ग्रहण करे ॥ ५७५-५७७ ॥ इस प्रकार परिकर्म करने वाला ही प्रतिमा - वहन कर सकता है। परिकर्म करने के बाद आचार्य की अनुज्ञा लेकर, गच्छ से निकलकर प्रतिमा स्वीकार करे। यदि आचार्य प्रतिमा वहन करने वाले हों तो वे अपने स्थान पर किसी योग्य व्यक्ति को स्थापित कर, शुभकाल में गच्छवासी सभी मुनिओं को आमन्त्रित कर उनसे क्षमापना करे । तत्पश्चात् प्रतिमा स्वीकार करे। कहा है कि प्रतिमावाहक संविग्न आत्मा आबालवृद्ध संघ के साथ यथायोग्य क्षमापना करे। जिनके साथ वैमनस्य हो, उन्हें विशेषरूप से यह कहकर खमावे कि हे भगवन् ! मेरे द्वारा प्रमादवश जो कुछ कटु व्यवहार बना हो, मैं आज नि:शल्य व निष्कषाय होकर उसके लिये आप से क्षमायाचना करता हूँ । नियम Jain Education International • पहली प्रतिमा में आहार की एक दत्ति और पानी की एक दत्ति ग्रहण करे । एषणा के अन्तिम पाँच प्रकार में से अभिग्रहपूर्वक किसी एक से आहार ग्रहण करे । आहार सर्वथा नीरस तथा एक स्वामी सम्बन्धी होना चाहिये । देने वाली गर्भिणी, बालवत्सा, बच्चे को दूध पिलाती हुई For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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