________________
३४ .
भूमिका
२४८वें
बताया गया है कि एक पिता के कितने पुत्र हो सकते हैं? और एक पुत्र के कितने पिता हो सकते हैं? यह आधुनिक जीव-विज्ञान की दृष्टि से भी एक रोचक विषय है। २४७वें द्वार में स्त्री-पुरुष कब संतानोत्पत्ति के अयोग्य होते हैं, इसका विवेचन किया गया है।
र्य आदि की मात्रा के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। इसमें यह भी बताया है कि एक शरीर में रक्त, वीर्य आदि की कितनी मात्रा होती है।
२४९वें द्वार में सम्यक्त्व आदि की उपलब्धि में किस अपेक्षा से कितना अन्तराल होता है, इसका विवेचन किया गया है।
२५०वें द्वार में मनुष्य भव में किनकी उत्पत्ति संभव नहीं है, इसका विवरण प्रस्तुत किया गया है।
२५१वें द्वार में ग्यारह अंगों के परिमाण का और २५२वें द्वार में चौदह पूर्वो के परिमाण का विवेचन है। इनमें मुख्य रूप से यह बताया है कि किस अंग और किस पूर्व की कितनी श्लोक संख्या होती है।
२५३वे द्वार में लवण शिखा के परिमाण का उल्लेख है। २५४वाँ द्वार विभिन्न प्रकार के अंगुलों (माप विशेष) का विवेचन करता है।
२५५वे द्वार में त्रसकाय के स्वरूप का विवेचन किया गया है। २५६वें द्वार में छ: प्रकार के अनन्तकायों की चर्चा है।
२५७- द्वार में निमित्त शास्त्र के आठ अंगों का विवेचन है। दूसरे शब्दों में यह द्वार अष्टांग निमित्त शास्त्र का विवेचन करता है।
२५८३ द्वार में मान और उन्मान अर्थात् और माप-तौल सम्बन्धी विभिन्न पैमाने दिये गये हैं।
२५९वें द्वार में अठारह प्रकार के भोज्य पदार्थों का विवेचन है। २६०वाँ द्वार षट् स्थानक हानि-वद्धि नामक जैन दर्शन की विशिष्ट अवधारणा का विवेचन करता है। २६१वें द्वार में उन जीवों का निर्देश है, जिनका संहरण संभव नहीं होता है। इसमें बताया गया है कि श्रमणी, अपगतवेद, परिहार विशुद्ध चारित्र, पुलाकजब्धि, अप्रमत्त गुणस्थानवीं चौदह पूर्वधर एवं आहारक लब्धि से सम्पन्न जीवों का संहरण नहीं होता है।
२६२वें द्वार में छप्पन अन्तीपों का विवेचन किया गया है। २६३वे द्वार में जीवों का पारस्परिक अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। २६४वें द्वार में युगप्रधान सूरियों अर्थात् आचार्यों की संख्या का विवेचन किया गया है। २६५वे द्वार में ऋषभ से लेकर महावीर स्वामी पर्यन्त तीर्थ की स्थिति का विचार किया गया है ।
२६६वाँ द्वार विभिन्न देवलोकों में देवता अपनी काम-वासना की पूर्ति कैसे करते हैं, इसका विवरण प्रस्तुत करता है।
२६७वें द्वार में कृष्णराजी का विवेचन है। २६८वाँ द्वार अस्वाध्याय के स्वरूप का विस्तृत विवेचन करता है। २६९वें द्वार में नन्दीश्वर द्वीप के स्वरूप का विवेचन किया गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org