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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३३ 54: 5524 २०५३ द्वार में जीवों के आहारादि के स्वरूप का विवेचन है। २०६३ द्वार में तीनसौत्रेसठ पाखंडी मतों का विस्तृत विवेचन किया गया है। २०७वे द्वार में प्रमाद के आठ भेदों का विवेचन है। २०८वें द्वार में बारह चक्रवर्तियों का, २०९वें द्वार में नौ बलदेवों का, २१०वें द्वार में नौ वासुदेवों का और २११वें द्वार में नौ प्रतिवासुदेवों का संक्षिप्त विवेचन उपलब्ध होता है। २१२वें द्वार में चक्रवर्ति, वासुदेव आदि के क्रमश: चौदह और सात रत्नों का विवेचन है । २१३वे द्वार में चक्रवर्ती, वासुदेव आदि की नव निधियों का विवेचन किया गया है। २१४वाँ द्वार विभिन्न योनियों में जन्म लेने वाले जीवों की संख्या आदि का विवेचन करता है। २१५वें द्वार से लेकर २२०वें द्वार तक छ: द्वारों में जैनकर्मसिद्धान्त का विवेचन उपलब्ध होता है। इनमें क्रमश: आठ मूल प्रकृतियों, एक सौ अट्ठावन उत्तर प्रकृतियों, उनके बंध आदि के स्वरूप तथा उनकी स्थिति का विवेचन किया गया है। अन्तिम दो द्वारों में क्रमश: बयालीस पुण्य प्रकृतियों का और बयासी पाप प्रकृतियों का विवेचन है। २२१वें द्वार में जीवों के क्षायिक आदि छ: प्रकार के भावों का विवेचन है इसके साथ ही इस द्वार में विभिन्न गुणस्थानों में पाये जाने वाले विभिन्न भावों का भी विवेचन किया गया है। २२२वाँ एवं २२३वाँ द्वार क्रमश: जीवों के चौदह और अजीवों के चौदह प्रकार का विवेचन करता है। २२४वें द्वार में चौदह गुणस्थानों का, २२५वें द्वार में चौदह मार्गणाओं का, २२६वें द्वार में बारह उपयोगों का और २२७वें द्वार में पन्द्रह योगों का विवेचन है। २२८वें द्वार में गुणस्थानों में रहते हुए परलोक गमन का, २२९वें द्वार में गुणस्थानों का कालमान, २३० से २३२वें द्वार में विकुर्वणा काल, ७ प्रकार के समुद्घात और ६ पर्याप्तियों का विश्लेषण है। २३३वे द्वार में ४ प्रकार के अनाहरक, २३४वें द्वार में ७ प्रकार के भयस्थान, २३५वें द्वार में ६ प्रकार की अप्रशस्तभाषा का वर्णन है। २३६वें द्वार में श्रावक के १२ व्रतों के जो भंग बनते है उनका शास्त्रीय दृष्टि से प्रामणिक विवेचन है। २३७वे द्वार में अठारह प्रकार के पापों का विवेचन है। २३८वें द्वार में मुनि के सत्ताइस मूल गुणों का विवेचन है। २३९वें द्वार में श्रावक के इक्कीस गुणों का विवेचन किया गया है। २४०वें द्वार में तिर्यंच जीवों की गर्भ स्थिति के उत्कृष्ट काल का विवेचन किया गया है। जबकि २४१वें द्वार में मनुष्यों की गर्भ स्थिति के सम्बन्ध में विवेचन है। २४२वाँ द्वार मनुष्य की काय स्थिति को स्पष्ट करता है। ... २४३वें द्वार में गर्भ में स्थित जीव के आहार के स्वरूप का विवेचन है तो २४४वें द्वार में गर्भ का धारण कब संभव होता है इसका विवरण दिया गया है। २४५वें और २४६वें द्वार में क्रमश: यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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