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________________ भूमिका १६८वें द्वार में ब्रह्मचर्य के अट्ठारह प्रकारों की चर्चा है और १६९वें द्वार में काम के चौबीस भेदों का विवेचन किया गया है। इसी क्रम में आगे १७०वें द्वार में दस प्रकार के प्राणों की चर्चा की गई है। जैनदर्शन में पाँच इन्द्रियाँ, मन-वचन और काया-ऐसे तीन बल, श्वासाच्छ्वास और आयु ऐसे दस प्राण माने गये हैं। १७१वें द्वार में दस प्रकार के कल्पवृक्षों की चर्चा है। १७२वें द्वार में सात नरक भूमियों के नाम और गोत्र का विवेचन किया गया है । आगे १७३ से लेकर १८२ तक के सभी द्वार नारकीय जीवन के विवेचन से सम्बद्ध हैं। १७३वें द्वार मे नरक के आवासों का, १७४३ द्वार में नारकीय वेदना का, १७५वे द्वार में नारकों की आयु का, १७६वें द्वार में नारकीय जीवों के शरीर की लम्बाई आदि का विवेचन किया गया है। पुन: १७७वे द्वार में नरक गति में प्रतिसमय उत्पत्ति और अन्तराल का विवेचन है। १७८वाँ द्वार किस नरक के जीवों में कौनसी द्रव्य लेश्या पाई जाती है, इसका विवेचन करता है, जबकि १७९वाँ द्वार नारक जीवों के अवधि-ज्ञान के स्वरूप का विवेचन करता है। १८०वें द्वार में नारकीय जीवों को दण्डित करने वाले परमाधामी देवों का विवेचन किया गया १८१वें द्वार में नारकीय जीवों की लब्धि अर्थात् शक्ति का विवेचन है जबकि १८२वें, १८३ और १८४वें द्वारों में नारकीय जीवों के उपपात अर्थात् जन्म का विवेचन प्रस्तुत करता है। इसमें यह बताया गया है कि जीव किन योनियों में मरकर कौनसी नरक में उत्पन्न होता है और नारकीय जीव मरकर तिर्यंच और मनुष्य योनियों में कहाँ-कहाँ जन्म लेते हैं। १८५ से १९१ तक के सात द्वारों में क्रमश: एकेन्द्रिय जीवों की कायस्थिति, भवस्थिति, शरीर परिमाण, इन्द्रियों के स्वरूप, इन्द्रियों के विषय, एकेन्द्रिय जीवों की लेश्या तथा उनकी गति और आगति का विवेचन उपलब्ध होता है। १९२ ओर १९३वें द्वारों में विकलेन्द्रिय आदि की उत्पत्ति, च्यवन एवं विरहकाल (अन्तराल) का तथा जन्म और मृत्यु प्राप्त करने वालों की संख्या का विवेचन है। १९४वें द्वार में भवनपति आदि देवों की कायस्थिति, १९५वें द्वार में उनके भवनादि का स्वरूप १९६३ द्वार में इन देवों के शरीर की लम्बाई आदि और १९७वें द्वार में विभिन्न देवों में पाई जाने वाली द्रव्य लेश्या का विवेचन है। इसी क्रम में १९८वें द्वार में देवों के अवधिज्ञान के स्वरूप का और १९९वें द्वार में देवों की उत्पत्ति में होने वाले विरहकाल का विवेचन है। २००३ द्वार में देवों के उपपात के विरहकाल का और २०१३ द्वार में देवों के उपपात की संख्या का विवेचन किया गया है। २०२ और २०३वें द्वारों में क्रमश: देवों की गति और आगति का विवेचन है। २०४वाँ द्वार सिद्ध गति में जाने वाले जीवों के बीच जो अन्तराल अर्थात् विरहकाल होता है उसका विवेचन करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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