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द्वार ६७
मूलकारणभूत विषय समूह के प्रति नहीं दौड़ता, प्रत्युत लोकवर्ती विविध पदार्थों के चिन्तन से समृद्ध ज्ञान के द्वारा उनका मन धर्मध्यान में स्थिर बन जाता है।
लोक स्वरूप भावना का चितन विषय-वासना का नाशक है, आत्मा में ज्ञान का प्रकाश देने वाला है तथा धर्म-ध्यान में मन को स्थिर करने वाला है। ११. बोधि दुर्लभ भावना
यह जीवात्मा संसार में कर्म परवश, पृथ्वी, पानी आदि में अनन्त पुद्गल परावर्तकाल तक भ्रमण करता है। अकाम निर्जरा से कुछ पुण्य प्राप्त कर त्रसभाव को प्राप्त करता है। कुछ और अधिक कर्म-निर्जरा होने से आर्यक्षेत्र, सुजाति, सुकुल, स्वस्थ-शरीर, यावत् राज्य-संपदा को भी प्राप्त करता है, किन्तु सत्य असत्य का विवेक कराने वाली बोधि प्राप्त होना अति दुर्लभ है, बोधि ही मोक्ष-सुख को देने वाली है। बोधि (सम्यक्त्व) प्राप्त होने के पश्चात् आत्मा को दीर्घकाल तक संसार में भ्रमण नहीं करना पड़ता । इस आत्मा ने संसार में परिभ्रमण करते हुए कई बार द्रव्य चारित्र पाया, किन्तु सम्यग्ज्ञानदायिनी बोधि कभी भी प्राप्त नहीं की। यही कारण है कि आत्मा का भव-भ्रमण अभी तक नहीं मिटा। जो भी आत्मा सिद्ध हुए, होते हैं या होंगे, उनकी सिद्धि का मूल कारण बोधि ही है। अत: बोधि प्राप्त करने का सतत प्रयास करना चाहिये। १२. धर्मोपदेशक अरिहंत
केवलज्ञान के आलोक में सम्पूर्ण विश्व को देखने वाले अरिहंत परमात्मा ही धर्म का यथार्थ स्वरूप बताने में समर्थ हैं, अन्य कोई नहीं। परमात्मा सर्व-जीवों के हित-चिंतक होने से कभी भी असत्य-भाषण नहीं करते। इसीलिये उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म सत्य है। परमात्मा के द्वारा प्ररूपित क्षमादि दशविध धर्म की आराधना करने वाला आत्मा कदापि भव-समुद्र में नहीं डूबता । पूर्वापर विरोधी, अधर्म, प्रेरक, कुतीर्थियों के द्वारा रचित, सद्गति के विरोधी धर्म श्लाघनीय कैसे हो सकते हैं? अन्य शास्त्रों में दया की, सत्य की जो चर्चा है वह कथनमात्र है वास्तविक नहीं है।
जीव को मदोन्मत्त हाथियों की घटावाला साम्राज्य, सभी लोकों को प्रमोद-हर्ष पैदा करने वाला वैभव, चन्द्रवत् निर्मल सद्गुण तथा सौभाग्य आदि की प्राप्ति में मूल कारण धर्म है। उछलती हुई तरंगों वाले समुद्र का अपनी मर्यादा में रहना, वर्षा का पृथ्वी को जलमग्न न करना, सूर्य, चन्द्र का समय पर उदय होकर जगत को प्रकाशित करना आदि सभी धर्म का प्रभाव है। धर्म बंधुरहित का बंधु है। मित्र रहित का मित्र है, रोगी के लिए औषधतुल्य, निर्धन का धन, अनाथों का नाथ तथा अशरण का शरण है। धर्म ही सभी कल्याण का जनक है। अरिहंत भगवान द्वारा कथित धर्म ही सत्य है। इस प्रकार चिन्तन करने वाला आत्मा धर्म में स्थिर बनता है।
जो आत्मा इन भावनाओं में से एक भी भावना का सतत चिंतन करता है उसके दुःखदाया सभा पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं तो सम्पूर्ण जैनागमों का अभ्यासी आत्मा यदि बारह ही भावनाओं का अभ्यास करके अक्षयसुख का भागी बने तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? अत: हमें इन भावनाओं का सतत चिन्तन करना चाहिये ॥ ५७२-५७३ ।।
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