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________________ प्रवचन - सारोद्धार वारुणीवर समुद्र का जल मदिरा तुल्य है । क्षीर सागर का जल औटाये हुए शर्करा मिश्रित दूध की तरह है। घृतवर समुद्र का जल ताजे तपे हुए गाय के घी के समान है । लवण समुद्र का जल नमक तुल्य खारा है । कालोदधि, पुष्करवर और स्वयंभूरमण इन तीनों का जल वर्षा के पानी के तुल्य है किन्तु इनमें कालोदधि का पानी काला और भारी है। पुष्करवर का जल हल्का हितकारी और स्फटिक की तरह स्वच्छ है । स्वयंभूरमण का भी ऐसा ही है। शेष समुद्रों का जल, उबल कर चौथाई - हिस्सा शेष बचे इक्षु-रस के समान मधुर स्वाद वाला है । समभूतला से सात सौ नब्बे योजन ऊपर ज्योतिषियों के विमान का तल है । वहाँ से दस योजन ऊपर सूर्य है, अस्सी योजन ऊपर चन्द्र है । ऊपर के बीस योजन में ग्रहादि हैं । इस प्रकार ज्योतिष देव - लोक एक सौ दस योजन प्रमाण है । 1 समुद्र में सूर्य-चन्द्र संख्या द्वीप- समुद्र • सूर्य-चन्द्र जंबू २-२ लवण कालोदधि ४-४ ४२-४२ Jain Education International पुष्करवर धातकीखंड ७२-७२ १२-१२ ३०५ मानुषोत्तर पर्वत से पचास हजार योजन दूर चन्द्र, सूर्य आदि एक-दूसरे से व्यवहित, मनुष्य लोक के सूर्य-चन्द्र से अर्ध - प्रमाण वाले हैं। क्षेत्र के विस्तार साथ इनकी संख्या भी बढ़ती जाती है । स्वयंभूरमण तक घंटाकार, मंद व अधिक तेजयुक्त, सतत स्थिर, असंख्य सूर्य-चन्द्र हैं । कुल १३२-१३२ समभूतला से डेढ़ राज ऊपर दक्षिण-उत्तर में सौधर्म और ईशान देवलोक हैं । समभूतला से ढाई राज ऊपर दक्षिण-उत्तर में सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक हैं । ऊर्ध्वलोक के मध्य में ब्रह्म देवलोक है । इस पर लांतक उसके ऊपर महाशुक्र, उस पर सहस्रार देवलोक पाँचवें राजलोक में है। उस पर एक इन्द्रवाले आनत और प्राणत देवलोक चन्द्रवत् गोलाकार हैं । छः राजलोक की ऊँचाई पर चन्द्रवत् गोल, एक इन्द्र वाले, आरण और अच्युत हैं। उस पर नौ ग्रैवेयक है। इससे ऊपर पाँच 'अनुत्तर विमान हैं 1 पूर्व विजय, दक्षिण में वैजयन्त, पश्चिम में जयन्त, उत्तर में अपराजित तथा मध्य में सर्वार्थसिद्ध है । सौधर्म देवलोक से लेकर सर्वार्थ सिद्ध के देवता क्रमशः आयुष्य, तेज, लेश्या, विशुद्धि, ज्ञान और प्रभाव में उत्तरोत्तर अधिक हैं तथा देहमान, गति, गर्व और परिग्रह में न्यून है। I प्रथम दो देवलोक के विमान घनोदधि पर स्थित हैं, उनके ऊपर के तीन विमान वायु पर आधारित हैं। उनके ऊपर के तीन विमान वायु और पानी पर स्थित हैं। ऊपर के शेष विमान आकाश पर आधारित हैं। सर्वार्थसिद्ध विमान से बारह योजन ऊपर स्फटिकवत् उज्ज्वल, पैंतालीस लाख योजन विस्तारवाली, गोलाकार किन्तु मध्य में आठ योजन मोटी 'ईषत्प्राग्भारा' नामक सिद्धशिला है। इसके ऊपर के अन्तिम योजन के चौथे कोश के छठे भाग में निरामय सिद्ध भगवान विराजमान हैं । सिद्धात्मा अनंत सुख, ज्ञान, वीर्य, दर्शन सम्पन्न, लोकान्त-स्पर्शी परस्पर, अवगाढ़ और शाश्वत हैं 1 इस प्रकार जो भव्यात्मा लोक स्वरूप भावना का सतत चिन्तन करते हैं उनका मन संसार के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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