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________________ ३०४ द्वार ६७ १०. लोक-स्वरूप भावना इस भावना में लोक-स्वरूप का चिन्तन किया जाता है। यह लोक कमर पर हाथ रखकर खड़े हुए पुरुष के तुल्य आकार वाला है। उत्पाद, व्यय और धौव्य स्वभाव वाले द्रव्यों से परिपूर्ण है। यह ऊर्ध्व, मध्य और अध: तीन भागों में विभक्त है। मेरुपर्वत के मध्य में रहे हुए रुचक-प्रदेशों से नौ सो योजन आगे ऊर्ध्वलोक है तथा नव सौ योजन नीचे अधो-लोक है। मध्य के अठारह सौ योजन में मध्यलोक है। ऊर्ध्वलोक सात-राज प्रमाण है, अधो-लोक भी उतना ही है। अधो-लोक में रत्नप्रभा आदि सात नरक हैं, जो चारों ओर से घनोदधि, घनवात और तनवात से घिरी हुई है तथा घोर अन्धकार युक्त है। वहाँ क्षुधा, पिपासा, वध, बन्धन, छेदन, भेदन आदि का भयंकर दुःख भोगने वाले नरक के जीव रहते हैं। प्रथम नरक की पृथुलता एक लाख अस्सी हजार योजन है। इसके ऊपर नीचे के एक हजार योजन को छोड़कर, एक लाख अट्ठहत्तर हजार योजन में भवनपति देवों के भवन हैं, उनमें दश दिक्कुमार देव दक्षिण और उत्तर दिशा में वास करते हैं। दक्षिणवासी देवों का स्वामी चमरेन्द्र है और उत्तरवासी देवों का स्वामी बलीन्द्र है। ऊपर के एक हजार योजन में से पुन: ऊपर नीचे सौ-सौ योजन छोड़कर शेष आठ सौ योजन में आठ व्यंतर-देवों के नगर हैं। भवनपति देव व उनके इन्द्रों के नाम भवनपति असुर नाग तड़ित सुपर्ण | अग्नि | वायु स्तनित | अब्धि द्वीप दिक्कुमार दक्षिणेन्द्र चमर | धरण | हरि । वेणुदेव अग्निशिख| वेलंब सुघोष जलक्रांत पूर्ण | अमित उत्तरेन्द्र | बली | भूतानंद हरिसिंह वेणुदली अग्निमाणक प्रभंजन महाघोष जलप्रभ वशिष्टक मितवाहन व्यन्तर देव व उनके इन्द्रों के नाम व्यन्तर | पिशाच भूत यक्ष । राक्षस । किन्नर / किंपुरुष | महोरग | गंधर्व दक्षिणेन्द्र काल सरूप । पर्णभद्र भीम | किन्नर | सत्परुष अतिकाय गीतरति उत्तरेन्द्र | महाकाल | प्रतिरूप | मणिभद्र महाभीम | किंपुरुष महापुरुष महाकाय गीतयश रत्नप्रभा के सब से ऊपर के सौ योजन में से दस-दस योजन ऊपर-नीचे छोड़कर, बीच के अस्सी योजन में अल्प ऋद्धि वाले आठ व्यन्तर देव हैं। ये भी दक्षिण-उत्तर दोनों ओर वास करते हैं, अत: इनके भी दो-दो इन्द्र हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी के ठीक ऊपर तथा जंबूद्वीप के मध्यभाग में एक लाख योजन ऊँचा सुवर्णमय मेरु पर्वत है। भरत आदि सात क्षेत्र और शाश्वत चैत्यों से विभूषित हिमवंत आदि छ: मुख्य पर्वत हैं। जंबूद्वीप से दो गुना विस्तृत उसके चारों ओर घिरा हुआ लवण समुद्र है। उसके बाद गोलाकार धातकीखण्ड द्वीप, कालोदधि समुद्र, पुष्करवर द्वीप व अन्त में स्वयंभूरमण समुद्र है। ये सभी द्वीप समुद्र क्रमश: द्विगुणित हैं। चार समुद्र का जल सर्व रसपूर्ण है। तीन समुद्र का जल स्वाभाविक स्वादयुक्त है। शेष समुद्र का जल इक्षुरस तुल्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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