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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३०३ तो उसे पवित्र मानने की मूर्खता कौन करेगा? शरीर के ममत्व का विसर्जन करने के लिये अशुचि भावना का सतत चिन्तन करना चाहिये। ७. आस्रव भावना मन, वचन, काया की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा कर्मों का आत्मा में आगमन आस्रव है। जिसके दिल में मैत्री है, गुणी व सुखी के प्रति प्रमोद भाव है, दु:खी के प्रति करुणा एवं पापी के प्रति उपेक्षा है, वह आत्मा बयालीस प्रकार का पुण्य कर्म बाँधता है तथा जो आत्मा आर्त्त-रौद्रध्यानी है, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद व कषाय का सतत सेवन करता है, वह बयासी प्रकार के पाप कर्म का बंधन करता है। सुदेव, सुगुरु और सद्धर्म पर श्रद्धा रखने वाला, उनके गुणगान करने वाला, हित, मित और सत्य वचन बोलने वाला पुण्यकर्म का बंधन करता है। इसके विपरीत सुदेवादि की निन्दा करने वाला, उत्सूत्र प्ररूपक पाप बाँधता है। देवपूजा, गुरुभक्ति, साधुसेवा आदि सुकृत करने वाला गुप्तिमान आत्मा पुण्य का बंधक है। माँसाहारी, शराबी, हिंसक, चोर, दुराचारी, अशुभकर्म बाँधता है। इस आस्रव भावना का जो सतत चिन्तन करता है वह अनेकविध अनर्थों का जनक आस्रव रूपी समुद्र से अपने मन को बाहर निकाल कर दुःखरूपी दावानल के लिये मेघ के समान व सम्पूर्ण कल्याण के निमित्तभूत शुभ-आस्रव में सतत रमण करता है। ८. संवर भावना आस्रव का निरोध करने वाली संवर भावना है। संवर के दो प्रकार हैं-१. सर्वसंवर २. देशसंवर । सर्वसंवर अयोगी केवली के होता है। एक/दो आदि आस्रवों को रोकना देशसंवर होता है। ये दोनों संवर भी द्रव्य और भाव के भेद से दो-दो प्रकार के हैं—(i) आते हुए कर्मपुद्गलों का सर्वत: या देशत: निरोध, द्रव्य संवर है। (i) संसार-वर्धक क्रिया का सर्वत: या देशत: त्याग, भाव संवर है। आस्रव के कारणों का उनके प्रतिपक्षी उपायों द्वारा निर्मूल करने का प्रयास करना चाहिये। मिथ्यात्व को सम्यक्त्व से, दुर्ध्यान को शुभध्यान से, क्रोध को क्षमा से, मान को विनय से, माया को सरलता से एवं लोभ को संतोष से. निर्मल करना चाहिये। संवर भावना का चिन्तन करने वाला आत्मा स्वर्ग व मोक्ष की संपदा को अवश्य प्राप्त करता है। ९. निर्जरा भावना संसार के मूलकारण रूप कर्म समूह का क्षय होना निर्जरा है। वह सकाम और अकाम दो प्रकार की है जैसे आम का पाक स्वाभाविक और प्रयत्नपूर्वक दो प्रकार से होता है वैसे निर्जरा भी दो प्रकार से होती है। भोग द्वारा स्वत: कर्मक्षय होना अकाम निर्जरा है और तप साधना द्वारा कर्मक्षय होना सकाम निर्जरा है। मुनियों की निर्जरा सकाम एवं अन्य जीवों की अकाम होती है। एकेन्द्रियादि अज्ञानी जीव शीत, ताप, छेदन, भेदन आदि कष्टों को सहन कर जो कर्म-क्षय करते हैं, वह अकाम निर्जरा है और कर्मक्षय करने की इच्छा वाले ज्ञानी-आत्मा तप-त्याग के द्वारा जो अपने कर्मों का क्षय करते हैं, वह सकाम-निर्जरा है। आत्मा को संसार-बंधन से मुक्त करने वाली निर्जरा-भावना का सतत चिन्तन करना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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