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द्वार ६७
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सरसमस
RAMERARMination:
विध पापकर्मों का बंधन करते रहते हैं। कुलीन मानव भी कर्मवश दरिद्र, दासपन, मानभंग, अवज्ञा आदि के कारण से महान कष्ट उठाते हैं। कितना दुःखद है यह संसार ! जहाँ मनुष्य जन्म के समय रोम-रोम में एक ही साथ चुभोई गई सूइयों की वेदना से आठ गुणी वेदना सहन करता है। बचपन में मल-मूत्र, धूल, अज्ञान खेलों में आनन्द मानता है, यौवन में धनार्जन, इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोगजन्य व्यथा से व्यथित रहता है, वृद्धावस्था में वयजन्य विडम्बना, देह-कंप, दृष्टि-मन्दता, बहिरापन, श्वास आदि से पीड़ित रहता है, संसार में, ऐसी कौनसी दशा है इस आत्मा की कि जहाँ वह सुख प्राप्त कर सकता है। देव भव में शोक, खेद, भय, ईर्ष्या, अल्प-ऋद्धि, काम, मद मोह, तृष्णादिवश दीर्घ आयुष्य क्लेशपूर्वक पूर्ण होती है। इस प्रकार संसार के स्वरूप को पूर्ण रूपेण पहचान कर मोक्ष-फल को देने वाली वैराग्य-वर्धक संसार भावना का निरन्तर चिन्तन करना चाहिये। ४. एकत्व भावना
इस संसार में जीव अकेला ही जन्मता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही कर्म करता है और कर्मजन्य परिणामों को भोगता भी अकेला ही है। बड़े परिश्रम से उपार्जित धन के भोग में तो सारा कुटुम्ब शामिल होता है, किन्तु पाप कर्मों को भोगने में जीव अकेला ही रह जाता है। यह आत्मा का एकाकीपन है ! जिसके कारण आत्मा दौड़-धूप करता है, दीन बनता है, धर्म-भ्रष्ट बनता है, हितकारी को
ता है. अन्याय करता है. वह शरीर मरने के बाद एक कदम भी साथ नहीं आता तो परिवार आदि की तो बात ही क्या करना? ऐसा जीव का एकत्व है। अपने-अपने स्वार्थ में रत स्वजन, शरीर आदि के स्वरूप को अच्छी तरह से पहचान कर सर्वथा कल्याणकारी ऐसे धर्म की शरण ग्रहण करना चाहिये। ५. अन्यत्व भावना
सबसे प्रिय, शरीर से भी आत्मा अलग हो जाता है तो अन्य वस्तुओं से जुदा होने में आश्चर्य ही क्या है? अत: शरीर के प्रति अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रखना हितकर है। इस प्रकार जो आत्मा अन्यत्व-भावना का चिंतन करता है, उसे सर्वस्व का नाश हो जाने पर भी शोक नहीं होता। ६. अशुचि-भावना
समुद्र में गिरे हुए पदार्थ नमक बन जाते हैं, वैसे ही शरीर के संसर्ग से श्रेष्ठ पदार्थ भी मलिन बन जाते हैं। यह देह सर्वथा अशुचि है, जिस काया के सौन्दर्य को देखकर हम मुग्ध बनते हैं, उस काया का उत्पाद कैसा है? यह काया रक्त और शुक्र के मिलन से उत्पन्न माता द्वारा खाये हुए भोजन से पुष्ट, सात धातुओं से निर्मित एवं रोग का घर है। ऐसी काया को कौन सुन्दर एवं पवित्र मानेगा? जल से भरे सैंकड़ों घड़े इस पर डाले जायें, केशर, कस्तूरी आदि सुगन्धित द्रव्यों से इसे महकाया जाये फिर भी यह अशुचि देह अपनी मलिनता नहीं छोड़ती। इस शरीर को कितनी भी अच्छी चीज खिलाई जाये, लड्डु, पेड़े, दही-दूध, दाख, इक्षुरस, आम आदि किन्तु उनकी परिणति मैले के रूप में ही होती है अत: इस शरीर को पवित्र कैसे कहा जा सकता है? जिसके संसर्ग से शुभ भी अशुभ बन जाता हो
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