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________________ प्रवचन - सारोद्धार ऐसा करने वाला प्रमादी व षट्काय का विराधक है 1 ३०१ ५. परिष्ठापनिका समिति — मूत्र - पुरीष, थूक, श्लेष्म शरीर का मल, अनुपयोगी वस्त्र - पात्र तथा अन्न-पानी का जीवरहित भूमि पर उपयोगपूर्वक त्याग करना ।। ५७१ ॥ • भावना - प्रतिदिन अभ्यास करने योग्य भाव । उसके बारह प्रकार हैं । १. अनित्य भावना वज्र की तरह अभेद्य शरीर वाले भी अनित्य हैं तो कमल की तरह कोमल शरीर वालों का कहना ही क्या ? जिस प्रकार बिल्ली दूध के लालच में मार की परवाह नहीं करती वैसे आत्मा अनित्य सुखों के लालच में यमराज की परवाह नहीं करता । शरीर नदी के प्रवाह की तरह एवं आयु उड़ती हुई ध्वजा की तरह चंचल है । रूप लावण्य नारी के नेत्र की तरह एवं यौवन मदोन्मत्त हाथी के कानों की तरह - अस्थिर है । प्रभुत्व स्वप्नवत् क्षणिक एवं लक्ष्मी विद्युतवत् चपल है । प्रेम, सुख सभी दो पल स्थायी है । इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ की क्षणिकता एवं अनित्यता का चिंतन करने वाला आत्मा प्रिय पुत्रादि की मृत्यु पर जरा भी शोक नहीं करता। जबकि सबको नित्य मानने वाला मूढबुद्धि आत्मा तुच्छ वस्तु के • नाश में भी दुःख करता है । अतः मोह का नाश करने वाली अनित्य भावना का सदा चिंतन करना चाहिये । २. अशरण भावना I जिस समय आत्मा मृत्यु के मुख में जाता है, उस समय पिता, पत्नी कोई बचा नहीं सकता । जिस समय आत्मा आधि, व्याधि रूपी बेड़ियों से बँधता है, उसके बंधन को काटने में अन्य कोई भी समर्थ नहीं है। जो शास्त्रों के ज्ञाता हैं, मंत्रादि में प्रवीण हैं, ज्योतिष और निमित्त के मर्मज्ञ हैं, वे भी त्रैलोक्य का नाश करने में तत्पर ऐसी मृत्यु का प्रतीकार करने में असमर्थ हैं । अनेकविध शास्त्रों के अभ्यास में निपुण, चारों ओर अंगरक्षकों से घिरे हुए मदोन्मत्त हाथियों से सुरक्षित इन्द्र, नरेन्द्र एवं चक्रवर्तियों को भी यम के दूत पकड़कर यमलोक में पहुँचा देते हैं । उस समय जीव की धन, कुटुम्ब, मित्र आदि कोई भी रक्षा नहीं कर सकते। मेरु को दण्ड और पृथ्वी को छत्र बनाने में समर्थ तीर्थकर परमात्मा भी मृत्यु को टाल नहीं सकते। स्वजन के स्नेह रूपी ग्रह का निवारण करने में समर्थ ऐसी अशरण भावना का चिंतन निरन्तर करना चाहिये । ३. संसार भावना इस संसार में जीवन अनेकविध विडम्बनाओं का शिकार बनता रहता है, कभी बुद्धिमान, कभी मूर्ख, कभी धनी तो कभी दरिद्री, कभी सुखी तो कभी दुःखी, कभी सुरूप तो कभी कुरूप, कभी सेठ तो कभी नौकर, कभी प्रिय तो कभी अप्रिय, कभी राजा तो कभी प्रजा, कभी देव तो कभी नारक, कभी मनुष्य तो कभी तिर्यंच बनता है । आरम्भ, समारम्भ के द्वारा अनेकविध पापकर्म बाँधकर जीव नरक में जाता है, वहाँ छेदन, भेदन, दहन की ऐसी वेदना भोगता है कि जिसे कहने में ब्रह्मा असमर्थ है। आर्त्तध्यान वशतिर्यंच गति में भूख, प्यास, शीत, ताप, बंधन, प्रहार, रोग, भारवहन आदि अवर्णनीय दुःख सहन करता है । भक्ष्य, अभक्ष्य, पाप, पुण्य, कर्त्तव्य, अकर्तव्य के विवेक के अभाव में अनार्य मानव अनेक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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