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प्रवचन-सारोद्धार
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१. सचित्त का सचित्त में गिरना ।,
२. सचित्त का अचित्त में गिरना ।, ३. अचित्त का सचित्त में गिरना।,
४. अचित्त का अचित्त में गिरना । सचित्त का संघट्टा होने से प्रथम के तीनों भांगे अशुद्ध हैं। चौथे भांगे में यदि गिरने वाला द्रव्य गर्म है तो दाता और भूम्याश्रित जीवों के जलने की सम्भावना रहती है। यदि गिरने वाला द्रव्य ठण्डा है तो पृथ्वी आदि के जीवों की विराधना का दोष लगता है। अत: चौथा भांगा भी अकल्प्य ही है ॥ ५६८ ॥ पिण्ड-विशुद्धि का संग्रह
पिण्डविशुद्धि के नियमों का संग्रह नवकोटि में होता है
१. स्वयं हिंसा न करना, २. न खरीदना, ३. न पकाना—इन तीनों का करण, कारण और अनुमोदन से गणा करने पर ३ x ३ = ९ कोटि ॥ ५६९ ॥ विशोधिकोटि - अविशोधि कोटि
१६ प्रकार का उद्गमदोष सामान्यत: दो प्रकार का है-(i) विशोधिकोटि रूप और (ii) 'अविशोधिकोटि रूप।
(i) जिन दोषों से दूषित आहार पृथक् कर देने पर शेष आहार कल्पनीय हो जाता है वे दोष विशोधिकोटि के हैं।
(ii) जिन दोषों से दूषित आहार पृथक् कर देने पर भी शेष आहार कल्पनीय नहीं बनता, वे दोष अविशोधिकोटि के हैं। ।
अविशोधिकोटि-१. आधाकर्म सप्रभेद, २. विभागोदेशिक के कर्मनामक भेद के अन्तिम तीन भेद, ३. पूति, ४. पाखण्डी गृही मिश्र और साधु गृही मिश्र। ५. बादर प्राभृतिका, ६. अध्यवपूरक के अन्तिम दो भेद (i) स्वगृही पाखण्डी मिश्र और (ii) स्वगृही साधु मिश्र ।
अविशोधिकोटि वाले छाछ आदि लेपकृत एवं वाल-चने आदि अलेपकृत पदार्थों के छोटे से कण से संसृष्ट शुद्ध भोजन परठने के पश्चात् भी पात्र को तीन बार पानी से धोये बिना उसमें आहार आदि लाना नहीं कल्पता। यदि जरा-सा भी अंश रह जाये तो उसमें लाया हुआ शुद्ध भोजन भी पूति (अशुद्ध) हो जाता है।
शेष दोष विशोधिकोटि के हैं । १. औघ-औद्देशिक और नवविध विभाग-औद्देशिक, २. उपकरणपूति, ३. यावदर्थिकमिश्र, ४. स्थापना, ५. अध्यवपूरक का प्रथम भेद, ६. सूक्ष्मप्राभृतिका, ७. प्रादुष्करण, ८. क्रीत, ९. प्रामित्य, १०. परिवर्तित, ११. अभ्याहत, १२. उद्भिन्न, १३. मालापहृत, १४. आच्छेद्य, १५. अनिसृष्ट ।
इन दोषों से दूषित आहार का अंश निकाल देने पर शेष भोजन शुद्ध रह जाता है। इन दोषों में पात्र को तीन बार धोने की आवश्यकता नहीं है। ग्रहणविधि
शुद्ध आहार लेने के बाद यदि अनाभोग से विशोधिकोटि के दोष से दूषित आहार ले लिया हो,
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