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________________ प्रवचन-सारोद्धार २८७ दोष गर्भस्तंभन व गर्भपात करने में दो दोष हैं। यदि सम्बन्धित व्यक्ति को मालूम पड़े तो उसे साधु के प्रति भयंकर रोष पैदा हो। साधु का द्वेषी बने । यदि सम्बन्धित व्यक्ति की मृत्यु हो जाये तो साधु को हिंसा लगे। गर्भाधान कराने, योनि को अविकृत बनाने में जीवन भर अब्रह्म में प्रवर्तन । यदि पुत्र जन्मे तो अनुराग से साधु को आधाकर्मी भिक्षा दे तथा योनि विकृत बने तो भोगान्तराय का बन्धन हो ॥ ५६६-५६७॥ एषणादोष : १० - साधु या गृहस्थ दोनों के निमित्त से होने वाले दोष । १. शंकित - आधाकर्म आदि दोषों की सम्भावना से युक्त भिक्षा ग्रहण करना। चतुर्भंगी - १. भिक्षा लेते समय शंकित और करते समय भी शंकित । २. भिक्षा लेते समय शंकित किन्तु करते समय अशंकित । ३. भिक्षा लेते समय अशंकित किन्तु करते समय शंकित । ४. भिक्षा लेते समय भी अशंकित और करते समय भी अशंकित । * चौथा भाँगा शुद्ध है। प्रथम तीन भागों में सोलह उद्गम दोष और नौ एषणा के दोषों में से जिस दोष की शंका हो, लेने वाले और वापरने वाले को वही दोष लगता है। उदाहरणार्थ कोई लज्जालु मुनि किसी के घर गौचरी हेतु गया। वहाँ प्रचुर मात्रा में भिक्षा मिलती हुई देखकर मन में सोचे कि “यहाँ प्रचुर भिक्षा मिलने का क्या कारण है ?” किन्तु लज्जावश गृहस्थ से नहीं पूछा और शंकित मन से भिक्षा ग्रहण करली व खाली। वह प्रथम भांगा है। गौचरी गया हुआ मुनि पूर्वोक्त परिस्थितियों में भिक्षा तो शंकित मन से ग्रहण करता है किन्तु गौचरी करते समय अन्य मुनि द्वारा स्पष्टीकरण देने पर कि “उस घर में भोज का प्रसंग है या प्रचुरमात्रा में कहीं से उपहार (भाणा) आया है अत: प्रचुर भिक्षा ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है।" इस प्रकार भिक्षा शुद्ध जानकर अशंकित मन से गौचरी करता है। यह दूसरा भाँगा है। लेते समय भिक्षा शंका-रहित ग्रहण की, वसति में आने के बाद आलोचना करते समय अन्य मुनियों के मुख से वैसी ही आलोचना सुनकर शंका करे कि “उस गृहस्थ के घर जैसी प्रचुर भिक्षा मुझे मिली वैसी इन मुनियों को भी मिली है अत: निश्चित है कि यह भिक्षा आधाकर्मी है। इस प्रकार शंकित मन से गौचरी करता है। यह तीसरा भांगा है। २. प्रक्षित - सचित्त या अचित्त पृथ्वीकाय आदि से लिप्त हाथ, चम्मच, पात्र आदि से भिक्षा ग्रहण करना। इसके दो प्रकार हैं(i) सचित्त प्रक्षित-(अ) पृथ्वीकाय प्रक्षित, (ब) अप्काय म्रक्षित, (स) वनस्पतिकाय म्रक्षित (अ) शुष्क या आर्द्र सचित्त पृथ्विकाय से लिप्त हाथ, चम्मच, पात्र आदि से भिक्षा लेना। (ब) अप्काय म्रक्षित के चार भेद हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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