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द्वार ६७
१२. विद्यापिंड
• “तुम मेरी सास जैसी हो।” साधु से यह सुनकर कोई भद्र नारी अपनी विधवा पुत्री को स्वीकार करने की प्रार्थना करे । जिसकी अधिष्ठात्री देवी हो तथा जो जप, होम आदि करके सिद्ध की जाये, वह विद्या है। विद्या प्रयोग से भिक्षा ग्रहण करना “विद्या पिंड" कहलाता है। - जिसका अधिष्ठाता देवता हो तथा जो पढ़ने मात्र से सिद्ध हो,
वह मंत्र है। मंत्र के प्रयोग द्वारा भिक्षा ग्रहण करना मंत्र पिंड
१३. मंत्रपिंड
है।
१४. चूर्णपिंड
विद्या और मंत्र से प्रभावित होकर जिसने मुनि को दान दिया, उसे सहज होने के बाद ज्ञात हो कि इसने मुझे प्रभावित कर दान लिया था तो दाता स्वयं या उसका कोई मित्र आदि साधु का द्वेषी बनकर प्रतिविद्या या प्रतिमंत्र से साधु को स्तंभित करे, मारे, पागल बना दे। “ये मुनि विद्या-मंत्र आदि से लोगों का द्रोह करके जीवन जीते हैं।” इस प्रकार लोग मुनियों की निन्दा करे। ये मुनि जादू-टोने करते हैं। ऐसा सोचकर लोग साधुओं के साथ मार-पीट करे । राजा से उनकी शिकायत करे । उनके कपड़े
उतारे, कदर्थनापूर्वक मार डाले।
- अंजन आदि के प्रयोग से अदृश्य होकर भिक्षा ग्रहण करना। . १५. योगपिंड
-- पादलेपादि के द्वारा अच्छे बुरे रूप बनाकर भिक्षा ग्रहण करना। दोष
- दोनों में विद्यापिंड व मंत्रपिंड की तरह समझना। प्रश्न—चूर्ण और योग दोनों में क्या अन्तर है? उत्तर-चूर्ण = अदृश्य करने वाले अंजन आदि । योग = सौभाग्य, दुर्भाग्यकारी पादलेपनादि ।
यद्यपि चूर्ण और योग में द्रव्य की दृष्टि से कोई भेद नहीं है, तथापि उपयोग की अपेक्षा से दोनों भिन्न हैं। चूर्ण बाह्य उपयोग की चीज है, किन्तु योग बाह्य और अभ्यन्तर दोनों उपयोग में आता है। जैसे-योग, जल-दूध आदि में घोलकर पिलाया भी जाता है और लेपादि बनाकर पाँव आदि में लगाया भी जाता है। अत: दोनों को अलग दोष माना गया।
- मूल = संसार वृद्धि का कारण । कर्म = पाप क्रिया। अर्थात्
संसार को बढ़ाने वाली पाप क्रिया “मूलकर्म" है । जैसे गर्भाधान, गर्भस्तंभन, गर्भपात, वंध्याकरण, अवंध्याकरण आदि पाप क्रियाओं के द्वारा लोगों से भिक्षा ग्रहण करना ।
१६. मूलकर्म
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