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प्रवचन-सारोद्धार
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दोष
करना। इसके दो भेद हैं—(i) वचनसंस्तव (ii)
सम्बन्धिसंस्तव। (i) पूर्ववचनसंस्तव - भिक्षा देने से पूर्व, दाता की प्रशंसा करना। यथा-भिक्षा ग्रहण
करने से पूर्व ही सद्-असद् गुणों के द्वारा दाता की प्रशंसा करना कि आपको देखकर पूर्वकालीन दाता का स्मरण हो आता है। आपके जैसा औदार्यादि गुण सम्पन्न दाता मैंने अन्यत्र कहीं देखा न सुना। धन्य हो तुम कि जिसमें ऐसे विश्वविश्रुत गुण हैं।
यह पूर्वसंस्तव है। (ii) पश्चात् वचनसंस्तव - भिक्षा देने के बाद दाता की प्रशंसा करना।
• आपके दर्शन से आज हमारे नेत्र सफल बने, मन शीतल बना। किसी दाता या गुणी को देखकर प्रमुदित होना कोई आश्चर्य की बात नहीं होती। इस प्रकार दान देने के बाद दाता का गुणगान करना पश्चात्संस्तव है। मायामृषावाद (कपटपूर्वक झूठ बोलना) तथा असंयमी की
अनुमोदना। (i) पूर्वसंबंधी संस्तव - दाता को माता-पितादि के रूप में विरुदाना। जैसे वृद्धा दात्री
को देखकर यह कहना कि आप मेरी 'माँ' की तरह लगती हैं और आँखों से आंसू निकालना। समान वयस्क दात्री से कहे कि आप मेरी बहन की तरह हैं। छोटी उम्रवाली को पुत्री कहकर
परिचय करना। (ii) पश्चात् संबंधी सं. - दाता या दात्री को सास-ससुर के रूप में विरुदाना। दोष
- • यदि गृहस्थ सरल परिणामी हो तो साधु के साथ सम्बन्धी
की तरह व्यवहार करे । स्नेहवश आधाकर्मी आदि आहार मुनि को वहोरावे। • यदि घर के लोग तुच्छ प्रकृति के हों तो सोचे कि हमें अपना सम्बन्धी बनाकर वह मुनि हमें नीचा दिखाना चाहता है अत: नाराज होकर मुनि को घर से निष्कासित कर दे । • यह रोकर ढोंग कर रहा है। हमें आकर्षित करने के लिए खुशामद कर रहा है। इस प्रकार गृहस्थ साधु की निन्दा करे । • “तुम मेरी माँ की तरह हो।” मुनि का ऐसा कथन सुनकर कोई सरलमना नारी वास्तव में मुनि को पुत्र तुल्य समझकर अपनी विधवा पुत्र-वधू को अपनाने की विनती करे ।
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