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७. क्रोध दोष
८. मानपिंड
९. मायापिंड
१०. लोभपिंड
दोष
११. पूर्व-पश्चात् संस्तव
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द्वार ६७
कोई साधु उच्चाटन मारण आदि की विद्या जानता है, तपस्वी है, बलिष्ठ है, राज- वल्लभ है। उसके शाप से गृहस्थ ने किसी को मरते देखा है । "कहीं मेरे पर भी कुपित न हो जाये।" ऐसा सोचकर भय से साधु को भिक्षा देना अथवा कोई व्यक्ति ब्राह्मणादि को दान दे रहा है और साधु को माँगने पर भी नहीं देता इससे साधु कुपित बने। यह देखकर गृहस्थ सोचे कि " साधु का क्रोध अच्छा नहीं होता ।” अत: इन्हें भी कुछ देना चाहिये ।
यहाँ भिक्षा देने का मुख्य कारण साधु का क्रोध है, विद्या-मंत्र आदि गौण कारण हैं ।
जिस भिक्षा का निमित्त मान हो, वह मानपिंड । जैसे- किसी मुनि के कहने पर कि " तुम बड़े लब्धिमान हो । हमें यह भोजन अवश्य कराओगे ।” इससे उत्तेजित होकर अथवा "तुम कुछ भी नहीं कर सकते” इससे अपमानित होकर अथवा "अपनी प्रशंसा सुनकर गर्व से दूसरा साधु बोले- "यह मेरी तारीफ है, मैं कहीं भी जाऊँ, अपनी इच्छित वस्तु मिल ही जाती है । " फिर गृहस्थ के घर जाकर गर्वयुक्त वचन बोलकर गृहस्थ को दान देने हेतु उत्तेजित करे। परिवार वालों की इच्छा न होने पर भी साधु से प्रेरित गृहस्थ साधु को भिक्षा दे । कपटपूर्वक भिक्षा ग्रहण करना। विद्या, मंत्र आदि के प्रभाव से अपना रूप बदल कर लड्डू आदि लाना । आसक्तिपूर्वक भिक्षा ग्रहण करना । जैसे, कोई साधु आसक्तिवश पहले से ही ऐसा सोचकर भिक्षा लेने जावे कि 'सिंह केशरिया लड्डू मिलेंगे तो ही ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं।' इस प्रकार इच्छित वस्तु मिले तो ही ले, अन्यथा न ले अथवा “ अमुक वस्तु मिलेगी तो ही लूँगा, अन्यथा नहीं ।' ऐसा तो न सोचे किन्तु रसयुक्त भोजन ग्रहण करे, सामान्य- भोजन न ले अथवा दूध-दही आदि मिलने के बाद शक्कर, मिश्री आदि के लिये भ्रमण करे । कर्मबंध, प्रद्वेष, प्रवचनलाघव आदि दोषों के कारण ये चारों ही पिंड साधु को लेना नहीं कल्पता है । भिक्षादि ग्रहण करने से पूर्व या बाद में देने वाले की प्रशंसा
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