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प्रवचन-सारोद्धार
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इनके धर्म की प्रशंसा करते हैं तो निश्चित रूप से इनका धर्म
सत्य है। • शाक्यादि के भक्त यदि भद्र परिणामी हों तो साधु की प्रशंसा से खुश होकर उसे आधाकर्मी
आहार दे। मनोज्ञ आहार के लोभ से कदाचित् मुनि स्वयं बौद्ध बने ।
लोग निन्दा करे कि ये साधु होकर भोजन हेतु लोगों की खुशामद करते हैं। • वास्तव में गृहस्थ शाक्य भक्त नहीं है किन्तु साधु ने गलती से उसे ऐसा समझ लिया और
उसके सामने शाक्यों की खूब प्रशंसा की जिससे गृहस्थ नाराज होकर साधु को घर से
बाहर कर दे।
• असंयमियों की प्रशंसा करने से हिंसादि पापों की अनुमोदना होती है। ६. चिकित्सा दोष
-- किसी गृहस्थ के रोग का स्वयं प्रतिकार करना, या चिकित्सा का
उपदेश देना। यह दो प्रकार का है-(i) सूक्ष्म, (ii) बादर । (i) सूक्ष्म चिकित्सा - औषध अथवा वैद्य का सूचन करना। (ii) बादर चिकित्सा - स्वयं चिकित्सा करना अथवा किसी दूसरे से कराना । जैसे—भिक्षा
हेतु आये हुए साधु को गृहस्थ पूछे—“आप मेरे रोग का नाशक कोई उपाय जानते हैं?" साधु-हे श्रावक ! जो रोग आपको है वही रोग एक बार मुझे भी हुआ था किन्तु अमुक औषध सेवन करने से मेरा रोग नष्ट हो गया। इस प्रकार रोगी को औषधि का सूचन करे अथवा रोगी द्वारा चिकित्सा के सम्बन्ध में पूछने पर साधु कहे-क्या मैं वैद्य हूँ जो तुम्हें औषधि बताऊँ ? इससे यह सूचित किया
कि रोग के सम्बन्ध में किसी वैद्य को पूछना चाहिये। स्वयं वैद्य बनकर, वमन, विरेचन आदि करे, क्वाथ आदि बनावे अथवा दूसरों से करावे। यह बादर चिकित्सा है।
___ चिकित्सा से खुश होकर गृहस्थ मुझे अच्छी भिक्षा देगा। इस आशय से गृहस्थ की चिकित्सा करे किन्तु तुच्छ भिक्षा के लिए ऐसा करना साधु के लिए सर्वथा अनुचित है। कारण इसमें अनेक दोषों की सम्भावना है।
• चिकित्सा में कन्द, मूलादि का उपयोग करने से जीव हिंसा, असंयम आदि दोष होते हैं। • स्वस्थ बना गृहस्थ, तपे हुए लोहे के गोले के समान तथा पुन: सबल बन कर अन्धे व्याघ्र
के समान अनेक जीवों की आरम्भ समारंभ द्वारा हिंसा करेगा। साधु के द्वारा चिकित्सा करते हुए दुर्भाग्यवश रोगी का रोग बढ़ जाये तो रोगी के सम्बन्धी साधु को राजा से दण्डित करावें। भिक्षा के लिये ये लोग चिकित्सा करते हैं इस प्रकार लोगों में अपवाद फैले, इससे शासन की अवहेलना होती है।
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