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________________ २८२ ५. वनीपकदोष दोष Jain Education International द्वार ६७ देना चाहिये और मुनि को दुत्कार कर बाहर निकाले । इस प्रकार कुलादि के लिए भी समझना । भिक्षा देने वाला जिसका भक्त हो, स्वयं को भी उसका भक्त बताकर भिक्षा ग्रहण करना । यति, निर्ग्रन्थ, बौद्ध, तापस, परिवाजक, ब्राह्मण, मेहमान, श्वान, कौआ, तोता, आजीवक आदि के भक्त के घर भिक्षा निमित्त गया हुआ मुनि भिक्षा हेतु उसके सामने निर्ग्रन्थ आदि की प्रशंसा करे। स्वयं भी उन्हीं का भक्त है यह बताये । निर्ग्रन्थ भक्त के यहाँ इस प्रकार कहे - हे श्रावक कुलतिलक ! आपके गुरु सातिशय ज्ञान - सम्पन्न हैं । विशुद्ध आचारनिष्ठ, साधु-समाचारी के पालक, धार्मिकजनों के मन को अपने ज्ञान एवं संयम से प्रभावित करने वाले, मोक्षमार्ग के सच्चे सार्थवाह हैं । बौद्ध-भक्त के यहाँ बौद्ध भिक्षुओं को भोजन करते हुए देखकर कहे कि - अहो ! ये महानुभाव कितने प्रशान्त और निश्चल चित्त से भोजन कर रहे हैं । वास्तव में महात्माओं को इसी प्रकार भोजन करना चाहिये । ये बड़े ही दयालु एवं दानशील हैं । इसी प्रकार तापस, परिव्राजक, आजीवक, ब्राह्मण आदि के भक्तों के घर उनके आराध्य की प्रशंसा करे... उनके दान की प्रशंसा करे और उन्हें खुश करके भिक्षा ग्रहण करे । अतिथि-भक्त के घर कहे — प्रायः लोक परिचितों, आश्रितों एवं उपकारियों का सत्कार-सम्मान करते हैं, किन्तु जो अतिथियों का सत्कार करते हैं उनका दान श्रेष्ठ है । कुत्ते के भक्तों को कहे- ये कुत्ते नहीं हैं, किन्तु कैलासवासी यक्ष हैं । यहाँ श्वान रूप में विचरण कर रहे हैं। अपने श्रेय के लिये इनकी पूजा करनी चाहिये। इसी प्रकार कौए तोते आदि के लिए भी कहे । सुपात्र या कुपात्र किसी को भी दिया गया दान निष्फल नहीं जाता, ऐसा कथन भी (सुपात्र और कुपात्र दोनों को बराबर समझने से) सम्यक्त्व को दूषित करता है तो कुपात्र शाक्यादि की साक्षात् प्रशंसा का तो कहना ही क्या वह तो महान् दूषण है । इससे लोगों का मिथ्यात्व दृढ़ होता । लोग सोचते हैं कि साधु भी ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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