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________________ २८० द्वार ६७ Ho २. दूतीपिंड अपना मुँह और गर्दन खड़ी रखनी पड़ती है जिससे बच्चे की गर्दन अधिक लम्बी हो जावेगी। यह धात्री काली है, इसका दूध पीने से बालक भी काला होगा। गोरी धात्री का दूध पुष्टिकारक नहीं होता। • इसका दूध पीने से बच्चा कमजोर होगा। अत: बालक के लिये सबसे उपयुक्त धात्री श्यामवर्णा है।' इससे गृहस्वामी उसे निकालकर साधु संमत धात्री को रखे। वह धात्री भी इससे खुश होकर साधु को मनोज्ञ भिक्षा दे। दोष—जिस धात्री को निकलवाया, वह द्वेषी बनकर साधु को झूठा कलंक दे, “निश्चित ही इस मुनि का उस धात्री के साथ गलत सम्बन्ध है।" प्रद्वेषवश विष मिश्रित भिक्षा देकर. साधु को मार डाले। • साधु ने जिसे गृहस्थ के घर रखवायी वह धात्री भी सोचे कि “आज इस मुनि ने उसे निकलवाकर मुझे रखवाया, कल मुझे भी निकलवा सकता है। अत: पहले ही इसे समाप्त कर देना चाहिये ।” और उस मुनि को जहर देकर मार दे। . - परस्पर संदेशादि पहुँचाकर, भिक्षा लेना दूतीपिंड है। इसके दो प्रकार हैं (i) स्वग्रामविषयक, (ii) परग्रामविषयक (i) स्वग्रामविषयक - जिस गाँव में साधु रहता है, उसी गाँव में परस्पर संदेश पहुँचाना। (ii) परग्रामविषयक - दूसरे गाँव जाकर संदेश पहुँचाना । पूर्वोक्त दोनों दो के भेद हैं—(i) प्रकट और (ii) प्रच्छन्न। (i) अपने-गाँव में या दूसरे गाँव में परस्पर सन्देश प्रकट रूप से अर्थात् सभी के सामने कहना “स्वपरग्रामविषयक प्रकट है।" (ii) प्रच्छन्न के दो भेद हैं—(अ) लोकोत्तर, (ब) लोक-लोकोत्तर । (अ) अपने गाँव में या दूसरे गाँव में परस्पर संदेश इस प्रकार पहुँचाना कि लोगों को ज्ञात हो, किन्तु साथ वाले मुनि को ज्ञात न हो। जैसे, किसी पुत्री ने भिक्षा हेतु आये हुए मुनि से निवेदन किया कि “आप मेरी माता के घर जायें तो उसे मेरा यह संदेश अवश्य कहें ।” साधु भिक्षा हेतु उसकी माता के घर गया किन्तु सोचे कि दूतीपन साधु के लिये निन्दनीय कर्म है, साथी मुनि मेरे लिये क्या सोचेंगे? अत: सीधे रूप में सन्देश न कहकर परोक्ष रूप से कहे कि- 'बहन ! आपकी पुत्री कितनी सरल है कि साधु के साथ संदेश भिजवाती है। उसने मुझे कहा कि आप मेरी माँ को कहें कि तुम्हारी पुत्री आयेगी किन्तु हम साधु हैं। इधर-उधर संदेश देना हमारा धर्म नहीं है।' माता भी साधु का अभिप्राय जानकर बड़ी चतुराई से जवाब दे कि–'अच्छा भगवन ! मैं अपनी पुत्री को मना कर दूंगी कि साधु को इस प्रकार नहीं कहना चाहिये।' इस प्रकार साथ वाले मुनि को साधु के दूतीपन का जरा भी सन्देह न हो । यहाँ साथी मुनि से छुपाना अभिप्रेत होने से 'लोकोत्तर प्रच्छन्न' है। (ब) अपने गाँव में या दूसरे गाँव में परस्पर इस प्रकार संदेश पहुँचाना कि न लोगों को ज्ञात हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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