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द्वार ६७
राजा गुस्सा होकर साधु को पकड़े, खींचे, वेष उतार कर निकाल
दे इत्यादि दोषों की सम्भावना रहती है। • “मेरी आज्ञा के बिना अपनी इच्छा से यह हस्ती का भोजन साधु को देता है” इससे रुष्ट
होकर राजा महावत को नौकरी से निकाल दे। • राजा की आज्ञा के बिना लेने से अदत्तादान का दोष लगता है। हस्ती के देखते हुए अगर
महावत साधु को उसके पिण्ड में से भिक्षा दे तो साधु को लेना नहीं कल्पता। महावत के पिण्ड में से भी लेना नहीं कल्पता, क्योंकि कदाचित् हाथी गुस्सा होकर राह चलते हुए साधु
को दबोच डाले, उपाश्रय को गिरा दे। १६. अध्वपूरक
- गाँव में मुनियों का आगमन सुनकर अपने लिये बनाये जाने
वाले भोजन में कुछ हिस्सा और बढ़ा देना। जैसे दाल में पानी
डालकर उसे बढ़ा देना। यह तीन प्रकार का है(.) स्वगृह-यावदर्थिक - अपने लिये भोजनादि का आरम्भ किया हो किन्तु सुना कि गाँव मिश्र
में बहुत से भिखारी आये हैं अत: अपने लिये बनते हुए चावल
आदि में कुछ उनके लिये और डाल देना। यावदर्थिक और मिश्रजात में अन्तर
यावदर्थिक में आग जलाना, बर्तन चूल्हे पर चढ़ाना, पानी डालना आदि का आरम्भ तो गृहस्थ अपने लिये ही करता है, किन्तु पकती हुई चीज में पीछे से अतिथियों के लिए बढ़ाता है। जबकि मिश्रजात में बनाते समय ही गृहस्थ अपने और अतिथियों के लिए बनाता है। (२) स्वगृह-पाखंडी-मिश्र - अपने लिये बनाये जाने वाले भोजन में पाखण्डियों का आगमन
सुनकर पीछे से उनके लिए अधिक बनाना। (३) स्वगृह-साधु मिश्र - अपने लिए बनाये जाने वाले भोजन में साधु का आगमन सुनकर
पीछे से अधिक बनाना। विशेष
- यावंदर्थिक मिश्र में पीछे से जितना बढ़ाया हो उतना भोजन
अलग निकाल देने पर या भिखारियों को बाँट देने पर शेष बचे भोजन में से साधुओं को लेना कल्पता है। यह 'विशोधिकोटि' है। किन्तु 'स्वगृह-पाखंडी-मिश्र', या 'स्वगृह-साधु-मिश्र' में जितना भोजन पाखण्डियों और साधुओं के लिये बढ़ाया था उतना उन्हें दे दिया हो, या अलग से निकाल दिया हो तो भी बचे हुए भोजन में से साधुओं को भिक्षा ग्रहण करना नहीं कल्पता । 'पूति' दोषयुक्त होने से। ये सोलह दोष गृहस्थजन्य हैं ।। ५६४-५६५ ।।
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