________________
द्वार ६७
२७४
। दूसरे गाँव जाकर वहोराना यह ‘प्रकट परग्रामविषयक अभ्याहत' दोष है।
भोजन समारोह बड़ा हो, खाने वालों की पंक्ति इतनी लम्बी हो कि साधु गौचरी वहोरने के लिये भोजन सामग्री तक न पहुँच सके। ऐसी स्थिति में जहाँ साधु खड़े हों वहाँ भोजन सामग्री लाकर वहोराना 'आचीर्ण क्षेत्र अभ्याहत' है।
(i) सौ हाथ दूर से लाकर वहोराना उत्कृष्ट क्षेत्राभिहत । (ii) कर परावर्तन से लेकर कुछ न्यून सौ हाथ दूर से लाकर वहोराना मध्यम क्षेत्राभिहत ।
(iii) कर परावर्तन द्वारा भोजन में से भिक्षा लेकर साधु के पात्र में वहोराना जघन्य क्षेत्राभिहत । जैसे कोई श्राविका स्वाभाविक ही हाथ में “मोदक” आदि लेकर खड़ी है, साधु गौचरी के लिये जा रहे हैं, और वह साधु को बुलाकर, हाथ खोलकर “मोदक” पात्र में डालें यह भी जघन्य क्षेत्राभिहत है।
• सौ हाथ से अधिक दूरी से लाया गया आहार-पानी ग्रहण करना साधु के लिये निषिद्ध है। • कर परावर्तन = जरा सा हाथ हिला सके इतना क्षेत्र।
गृहविषयक : आचीर्ण-अभ्याहृत-एक पंक्ति में रहे हुए तीन घरों की भिक्षा एक साथ साधु ग्रहण कर सकता है। एक साधु जिस घर से भिक्षा ली जा रही है, उसका उपयोग रखे। पीछे वाला मुनि दोनों घरों से मुनियों तक लाई जा रही भिक्षा का उपयोग रखे (भिक्षा कल्प्य है या नहीं, देने वाला योग्य है या नहीं, भिक्षा विधिपूर्वक लाई गई है या नहीं)। एक साथ चार घर की भिक्षा लेना साधु को नहीं कल्पती। १२. उद्भिन्न
- साधु को भिक्षा देने के लिये सील तोड़ना, लेपन आदि हटाना।
यह दो प्रकार का है-(i) पिहितोद्भिन्न, (ii) कपाटोद्भिन्न । (i) पिहितोद्भिन्न - जिनका मुँह गोबर, मिट्टी, सीसे आदि से बन्द किया हुआ है
और जो प्रतिदिन नहीं खोले जाते हैं, ऐसे घड़े, कोठी कुतुप आदि का मुँह, साधु के निमित्त खोलकर गुड़, शक्कर, घी आदि
की भिक्षा देना। (ii) कपाटोद्भिन्न - जो प्रतिदिन न खुलता हो ऐसा दरवाजा साधु के निमित्त खोलकर
गुड़, शक्कर, घी आदि की भिक्षा देना। - षट्काय जीवों की विराधना। साधु को भिक्षा देने के बाद पुन: मिट्टी आदि से घड़े आदि का मुँह बन्द करने से पृथ्वीकाय, अप्काय जीवों की विराधना। मिट्टी आदि में त्रस जीवों की सम्भावना होने से त्रस जीवों की विराधना। सीसे से मुँह बन्द करे तो उसे अग्नि आदि में तपाने से तेजस्, वायु की विराधना । अप्काय जीवों की विराधना में वनस्पतिकाय के जीवों की विराधना भी निश्चित है। कहा है 'जत्थ जलं, तत्थ वणं' जहाँ जल है, वहाँ वनस्पति अवश्य है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org