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प्रवचन-सारोद्धार
२७३
(i) अनाचीर्ण
(ii) आचीर्ण
प्रच्छन्न
प्रकट
क्षेत्रविषयक
गृहविषयक
(साधु द्वारा अज्ञात) (साधु द्वारा ज्ञात) १. उत्कृष्ट प्रच्छन्न व प्रकट दोनों के दो-दो भेद हैं। २. मध्यम १. स्वग्राम विषयक, २. परग्राम विषयक ३. जघन्य स्वग्राम = जिस गाँव में साधु रहते हैं। परग्राम = शेष परगाँव
भक्ति वश साधु का लाभ लेने के लिये कोई श्राविका पाथेय आदि के बहाने लड्ड आदि उपाश्रय में लेकर आवे किन्तु साधु को अभ्याहृत का सन्देह न हो इसलिये कहे कि मैं अपने भाई के घर अथवा भोज आदि में गयी थी। वहाँ से ये लेकर आई हूँ अथवा कहे कि मैं अपने स्वजन के घर उपहार देने गई थी किन्तु रोष के कारण उन्होंने मेरा उपहार नहीं लिया अत: वापस घर ले जा रही हूँ, बीच में उपाश्रय होने से वन्दन के लिये आ गई। मोदक आदि आपके लिये नहीं लाये गये हैं अत: कृपा करके मुझे लाभ दीजिये। इस प्रकार कहकर साधु को वहोराना। यह 'प्रच्छन्न स्वग्रामविषयक अभ्याहृत' कहलाता है।
विवाह आदि के बाद मिठाई आदि खाद्य सामग्री बहुत सारी बची हुई देखकर गृहस्थ विचार करे कि यदि साधुओं का लाभ मिल जाये तो बड़ा पुण्य होगा। किन्तु, साधु अपने गाँव में नहीं हैं समीपस्थ गाँव में हैं। बीच में नदी पड़ने से वे यहाँ आ नहीं सकते। किसी प्रकार पधार भी जायें तो प्रचुर सामग्री देखकर “आधाकर्मी" की शंका से इसे ग्रहण नहीं करेंगे। ऐसा सोचकर मिठाई आदि लेकर साधुओं को वहोराने के लिये स्वयं उस गाँव में जावे और सोचे कि केवल साधुओं को भिक्षा के लिए बुलाने पर वे इस आहार को दूषित समझकर नहीं लेंगे अत: पहले ब्राह्मण आदि को दूंगा। यदि ब्राह्मण आदि को देते हुए मुझे साधु नहीं देखेंगे तो आहार के अशुद्ध होने की शंका उनके मन में पूर्ववत् ही रहेगी, तो जहाँ से मुनि उच्चार-स्थंडिल आदि के लिए आते-जाते मुझे देखेंगे, उस रास्ते पर दूंगा। इस प्रकार सोचकर योग्य स्थान पर सर्व प्रथम थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ब्राह्मण आदि को देना प्रारम्भ करे। तत्पश्चात् उच्चारादि के लिये निकले हुए मुनि को देख कर कहे कि-'हे मुनि भगवन्त ! हमारे पास प्रचुर मात्रा में बचे हुए मोदक आदि पड़े हैं आप कृपा कर ग्रहण करें ।' साधु भी उन्हें शुद्ध समझकर ग्रहण करें। यह ‘प्रच्छन्न परग्रामविषयक अभ्याहृत' है। यदि ज्ञात हो जाये की यह आहार दूषित है तो तुरन्त परठ देना चाहिये।
कोई मुनि भिक्षा हेतु भ्रमण करते हुए किसी के घर में गये, वहाँ भोज का प्रसंग होने से गृहस्थ साधु को भिक्षा न दे सका अत: भोजनादि से निवृत्त होने के बाद गृहस्थ द्वारा उपाश्रय में ले जाकर मिठाई आदि वहोराना। 'प्रकट स्वग्रामविषयक अभ्याहृत' दोष है।
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