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द्वार ६७
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९. प्रामित्यक
दोष—१. क्रीत दोष, २. लाया हुआ लेने से अभ्याहत दोष, ३.
लाकर साधु को देने के लिए रखने से स्थापना दोष । - पड़ौसी आदि से उधार लाकर साधु को बहराना । यह दो प्रकार
का है-लौकिक व लोकोत्तर। (i) लौकिक- घी आदि लौकिक वस्तु उधार लाकर साधु को देना। दोष-समय पर न लौटा सके तो कोई कठोर व्यक्ति उधार लेने वाले को दास बनावे, कैद करावे, इत्यादि। (ii) लोकोत्तर– परस्पर साधुओं का लेना देना। इसके दो भेद हैं—(j) कोई मुनि किसी मुनि से यह कहकर वस्त्र आदि ग्रहण करे कि कुछ दिन उपयोग करके तुम्हारा वस्त्र वापस लौटा दूंगा। (ii) इतने दिनों के बाद तुम्हें इसके ही जैसा दूसरा वस्त्र दूँगा। दोष—प्रथम भेद में परस्पर साधुओं के बीच कलह की सम्भावना रहती है। जैसे, कि वस्त्र मैला हो गया, चोरी हो गई अथवा खो गया अत: वस्त्र लौटा न पाये तो देने वाले साधु के साथ कलह रो सकती है।
य भेद में भी उसकी रुचि के अनुरूप वस्तु न दे सके तो कलह की सम्भावना रहती है। - साधु को देने के लिए पड़ौसी या अन्य के साथ वस्तु का विनिमय (अदला-बदली) करना। यह दो प्रकार का है। लौकिक
और लोकोत्तर (साधुविषयक)। - - दो प्रकार : एकद्रव्यविषयक = जैसे पका हुआ घी देकर ताजा
घी लेना।
अन्यद्रव्यविषयक = जैसे कोद्रव देकर शालि चावल लेना। - दो प्रकार : एकद्रव्यविषयक : जैसे घटिया वस्त्र देकर अच्छा
वस्त्र लेना अन्यद्रव्यविषयक = जैसे वस्त्र के बदले पुस्तक लेना। दोष पूर्ववत् समझना। - साधु के निमित्त अन्य स्थान से लाकर आहार देना। इसके दो
भेद हैं-(i) अनाचीर्ण, (ii) आचीर्ण
१०. परिवर्तित
(i) लौकिक
(ii) लोकोत्तर
११. अभ्याहत
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