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प्रवचन-सारोद्धार
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८. क्रीत
दोनों ही प्रादुष्करण षट्काय जीव की विराधना के हेतु होने से त्याज्य हैं। साधु के निमित्त खरीदा हुआ। इसके चार प्रकार हैं
१. आत्म-द्रव्य-क्रीत, २. आत्म-भाव-क्रीत, ३. परद्रव्य क्रीत, ४. परभाव-क्रीत १. आत्म-द्रव्य-क्रीत—गिरनार आदि तीर्थों का प्रसाद, रूपपरावर्तिनी गुटिका, सौभाग्यदायिनी रक्षा आदि गृहस्थ को देकर आहार आदि ग्रहण करना, यह आत्म-द्रव्य-क्रीत है। दोष-रक्षा आदि देने के बाद यदि श्रावक अचानक बीमार हो जाये, तो साधु को बदनाम करेगा कि 'मैं तो स्वस्थ था, किन्तु साधु ने मुझे बीमार कर दिया। इससे धर्म की अवहेलना होती है। लोगों की बीमारी सुनकर राजा साधु को दण्डित कर सकता
कोई व्यक्ति बीमार है और साधु के द्वारा तीर्थों का प्रसाद, रक्षा आदि देने के बाद स्वस्थ हो गया तो भी लोग 'ये साधु खुशामदखोर हैं' ऐसा कहकर साधु का उपहास कर सकते हैं तथा तीर्थों के प्रसाद आदि के द्वारा स्वस्थ बना गृहस्थ आरम्भादि के द्वारा छ: काय जीवों की हिंसा करेगा, इससे मुनि को निमित्तजन्य कर्मबंधन होगा। २. आत्म-भाव-क्रीत-उपदेश, वाद-विवाद, तपस्या, आतापना, कविता आदि के द्वारा लोगों को आकर्षित करके आहार आदि ग्रहण करना, यह आत्मभाव क्रीत है। दोष—इनसे कर्म निर्जरा के हेतु होने वाली संयम आराधना निष्फल हो जाती है। ३. परद्रव्य-क्रीत-गृहस्थ के द्वारा साधु के निमित्त सचित्त, अचित्त या मिश्र द्रव्य से खरीदा हुआ आहार आदि ग्रहण करना। यह परद्रव्य क्रीत है। दोष-इससे छ: काय के जीवों की विराधना होती है। ४. परभाव-क्रीत–साधु की भक्ति निमित्त, मंखादि के द्वारा पटादि दिखाकर, धर्मकथा आदि कहकर प्रभावित किये गये लोकों से गृहीत आहार आदि ग्रहण करना परभाव क्रीत है।
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