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________________ २६४ द्वार ६७ - :: उद्गम के सोलह दोष, सोलह उत्पादना के दोष तथा दस एषणा के दोष—इस प्रकार गौचरी सम्बन्धी ४२ दोष हैं ॥५६३ ।। १. आधाकर्म, २. औद्देशिक, ३. पूतिकर्म, ४. मिश्रजात, ५. स्थापना, ६. प्राभृतिका, ७. प्रादुष्करण, ८. क्रीत, ९. प्रामित्य, १०. परिवर्तित, ११. अभ्याहत, १२. उद्भिन्न, १३. मालापहत, १४. आच्छेद्य, १५. अनिसृष्ट एवं १६. अध्यवपूरक-ये सोलह उद्गम-दोष हैं ।।५६४-५६५ ।। १. धात्री, २. दूती, ३. निमित्त, ४. आजीवक, ५. वणिमग, ६. चिकित्सा, ७. क्रोध, ८ मान, ९. माया, १०. लोभ, ११. पूर्व संस्तव-पश्चात् संस्तव, १२. विद्या, १३. मंत्र, १४. चूर्ण, १५. योग और १६. मूलकर्म-ये सोलह उत्पादना के दोष हैं ॥५६६-५६७ ।। १. शंकित, २. प्रक्षित, ३. निक्षिप्त, ४. पिहित, ५. संहत, ६. दायक, ७. मिश्र, ८. अपरिणत, ९. लिप्त, १० छर्दित-ये दस एषणा के दोष हैं ।।५६८ ॥ पिंडविशुद्धि का सार-सम्पूर्ण पिंडविशुद्धि का संक्षेप से नवकोटि में समावेश हो जाता है। स्वयं हिंसा न करना, स्वयं वस्तु न खरीदना तथा स्वयं न पकाना इन तीनों के कराने व अनुमोदन के साथ तीन-तीन भेद होने से कुल नौ भेद होते हैं ॥५६९ ॥ १. आधाकर्म, २. औद्देशिक के अन्तिम तीन भेद, ३. अध्यवपूरक, ४. पूतिकर्म, ५. मिश्रजात और ६. अन्तिम बादर प्राभृतिका-ये दोष अविशोधिकोटि के हैं। शेष सभी दोष विशोधिकोटि के हैं ।।५७० ॥ १. इर्यासमिति, २. भाषा समिति, ३. एषणा समिति, ४. आदान समिति तथा ५. परिष्ठापना समिति-ये ५ समितियाँ हैं। समिति अर्थात् सम्यग् उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करना ॥५७१ ।। १. अनित्य, २. अशरण, ३. संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचित्व, ७. आस्रव, ८. संवर, ९. निर्जरा, १०. लोकस्वभाव, ११. बोधिदुर्लभ तथा १२. धर्मोपदेशक अरिहंत-इन बारह भावनाओं का यथाक्रम चिन्तन करना चाहिये ।।५७२-५७३ ॥ एक से सात प्रतिमायें क्रमश: १-२-३-४-५-६ एवं ७ मास की हैं। आठवीं, नौवीं और दसवीं ये तीन प्रतिमायें ७ अहोरात्रि की हैं। ग्यारहवीं प्रतिमा एक अहोरात्रि की तथा बारहवीं प्रतिमा एक रात्रि की है। इस प्रकार बारह भिक्षु प्रतिमा हैं ।।५७४ ।। इन प्रतिमाओं को संघयणयुक्त, धैर्ययुक्त, महासत्त्वशाली, भावितात्मा तथा गुरु की आज्ञा जिसने प्राप्त करली है ऐसा आत्मा ही स्वीकार कर सकता है। गच्छ में रहकर जो आहारादि विषय में निपुण हो चुका हो, उत्कृष्ट से दशपूर्व तथा जघन्य से नौ पूर्व की तीसरी वस्तु का ज्ञाता, जिनकल्पी की तरह सदा कायोत्सर्गमुद्रा में रहनेवाला, उपसर्ग सहिष्णु, अभिग्रहपूर्वक भिक्षा ग्रहण करने वाला तथा अलेपकृत भिक्षा ग्रहण करने वाला आत्मा प्रतिमाधारी होता है ।।५७५-५७७ ॥ ___ गच्छ से निकलकर मासिकी महाप्रतिमा स्वीकार करता है। उसमें आहार-पानी की एक-एक दत्ति होती है। जहाँ सूर्य अस्त होता है वहाँ से प्रतिमाधारी एक कदम भी आगे नहीं धरता। एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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