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प्रवचन - सारोद्धार
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स्थान में एक रात ही ठहरता है । अज्ञात स्थान में दो रात भी रह सकता है । हस्ति आदि हिंसक पशुओं के भय से एक कदम भी मार्ग छोड़कर न चले। इस प्रकार नियमों का पालन करते हुए सम्पूर्ण मास व्यतीत करे ।।५७८-५८० ।।
पहली प्रतिमा का एक मास पूर्ण कर पुनः गच्छ में चला जाता हैं । इस प्रकार दो मास की, तीन मास की यावत् सात मास की प्रतिमा वहन करे । मात्र दत्ति की वृद्धि करते जाये, यथा सात मास की प्रतिमा में आहार व पानी की सात-सात दत्ति ग्रहण करे ।।५८१ ॥
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तत्पश्चात् सात अहोरात्रि की आठवीं प्रतिमा है। उसमें विशेषता यह है कि चौविहार चतुर्थभक् के पारणे चौविहार चतुर्थभक्त करे। ऊर्ध्वमुख करके या करवट लेकर या सोते हुए या बैठकर या विशेष आसन में स्थित होकर देवता सम्बन्धी घोर उपसर्गों को निश्चल भाव से सहन करे ।।५८२-५८३ ।। सात अहोरात्र की दूसरी अर्थात् नौवीं प्रतिमा भी पूर्ववत् गाँव आदि के बाहर उत्कटुक आसन, वक्रासन अथवा दण्डायत आसन में रहकर पूर्ण करे ।।५८४ ।।
सात अहोरात्र की दसवीं प्रतिमा भी पूर्ववत् है । परन्तु इसमें गोदोहिकासन, वीरासन अथवा आम्रवत् वक्रासन में बैठे ॥ ५८५ ।।
ग्यारहवीं प्रतिमा भी पूर्ववत् है । परन्तु इस प्रतिमा में तप में चौविहार छट्ठ होता है और प्रतिमाधारी गाँव-नगर के बाहर हाथ लम्बे करके ध्यान में रहता है। बारहवीं एक अहोरात्र की प्रतिमा भी इसी तरह है पर इसमें चौविहार अट्ठम होता है तथा प्रतिमाधारी गाँव से बाहर कुछ झुका हुआ अपलक नेत्रों को एक ही वस्तु पर टिकाकर ध्यान स्थित रहता है ।।५८६-५८७ ।।
दोनों पाँवों को एकत्रित करके, दोनों हाथों को लम्बे करके ध्यान में स्थित रहने वाले को अन्त में विशिष्ट लब्धियाँ प्राप्त होती हैं ॥ ५८८ ॥
१. स्पर्शन, २. रसन, ३. ध्राण, ४ चक्षु एवं ५ श्रोत्र - ये पाँच इन्द्रियाँ हैं और स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द ये ५ इन्द्रियों के विषय हैं ।। ५८९ ।।
प्रतिदिन साधु को तीन बार पडिलेहण करनी चाहिए - १. प्रभात में, २. अपरान्ह में, ३ उग्घाड़ा पोरिसी में । प्रथम पडिलेहण प्रतिक्रमण करने के पश्चात् तथा सूर्योदय से पूर्व करनी चाहिये ॥ ५९० ।। मुहपत्ति, चोलपट्टा, कल्पत्रय, दो निषद्या, रजोहरण, संस्तारक तथा उत्तरपट्ट इन दस का प्रतिलेखन सूर्योदय से पूर्व करना चाहिये ॥ ५९१ ।।
दिन के तीसरे प्रहर में १४ उपकरणों की प्रतिलेखना करे तथा उघाड़ा पोरिसी के समय सप्तविध पात्र निर्योग की प्रतिलेखना करे ।।५९२ ।।
सुबह उपधि-पडिलेहण करने के पश्चात् वसति की 'पडिलेहणा' करे । किन्तु अपराह्न में व की प्रमार्जना करने के पश्चात् उपधि-पडिलेहण करे ।।५९३ ।।
शीतोष्ण काल में वसति -प्रमार्जन दो बार होता है पर वर्षाकाल में तीसरी बार मध्याह्न में भी
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