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इत्थीए मलिय सयणासणंमि तप्फासदोसओ जइणो । दूसेइ मणं मयणो कुटुं जह फासदोसेणं ||
अर्थ- स्पर्श दोष से जैसे कुष्ठरोग शरीर को दूषित कर देता है वैसे स्त्री सेवित शयन-आसन का उपयोग करने से काम मन को दूषित कर देता है ।
४. इन्द्रिय
नारी के सुन्दर अंगोपांग को राग दृष्टि से न देखना। उनका चिन्तन न करना । अवलोकन और चिन्तन से निश्चित मोह का उदय होता है ।
५. कुड्यांतर
पूर्वक्रीड़ा
६.
७. प्रणीताहर
८. अति आहार
रूखा-सूखा भी आहार अधिक मात्रा में नहीं करना चाहिये इससे ब्रह्मचर्य का भंग एवं शारीरिक पीड़ा की सम्भावना रहती है । शरीर की स्नान - विभूषा आदि नहीं करना (स्नान - विलेपन करना, नख, दाँत, केश आदि को सँवारना । ये सब विकारवर्धक होने से ब्रह्मचर्य को दूषित करते हैं) । शरीर अशुचि का घर है, उसे संस्कारित करने का प्रयास व्यर्थ है ।
पूर्वोक्त नौ ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपाय हैं । इनका पालन करने से ब्रह्मचर्य विशुद्ध बनता
है ॥५५७ ॥
३. ज्ञानादि
ज्ञान
९. विभूषा
दर्शन
चारित्र
द्वार ६६
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भले भींत की आड़ हो, किन्तु जहाँ पति-पत्नी का प्रेमालाप सुनाई देता हो, ऐसे स्थान में ब्रह्मचारी को नहीं रहना चाहिये । गृहस्थावस्था में भोगे हुए भोग, जुआ आदि का साधु जीवन में कदापि स्मरण नहीं करना चाहिये । स्मरण करने से ईधन डालने से भड़की हुई आग की तरह "काम" उत्तेजित होता है । अतिस्निग्ध- अत्यन्त मधुर रसयुक्त आहार न करना (ऐसा आहार करने से धातु पुष्ट होते हैं, "काम" उत्तेजित होकर ब्रह्मचर्य को दूषित करता है ) ।
ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न बोध । ज्ञान का हेतु होने से अंग, उपांग, प्रकीर्णक आदि भी ज्ञान I जीव- अजीव आदि तत्त्वों की यथार्थ श्रद्धा ।
सभी पाप व्यापारों का ज्ञान व श्रद्धापूर्वक त्याग । वह त्याग दो प्रकार का है - देशतः व सर्वतः ।
देशतः श्रावक का, सर्वतः मुनि का ।। ५५८ ॥
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