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________________ प्रवचन-सारोद्धार २५९ १७. काय संयम - आवश्यक कार्यों के लिए उपयोगपूर्वक गमनागमन करना ॥ ५५५ ॥ १० वैयावच्च-स्वयं को दूसरों की सेवा में जोड़ना व्यावृत्ति है, उसका भाव वैयावृत्य है। १. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. तपस्वी विकृष्ट-अविकृष्ट रूप तप करने वाला। विकृष्ट-कठोर, अविकृष्ट-अकठोर, ४. शैक्ष (नूतन दीक्षित जो अभी शिक्षा देने योग्य है), ५.ग्लान (ज्वरादि का रोगी), ६. स्थविर, ७. समनोज्ञ (एक समाचारी वाला), ८. संघ (चतुर्विध), ९. कुल (चन्द्रादि = अनेक सजातीय गच्छों का समूह), १० गण (कुल का समूह = कोटिकादि गण)। गच्छ = एक आचार्य से निर्मित साधु समूह। आचार्य आदि की अन्न, पान, वस्त्र, पात्र, उपाश्रय, पाट, संस्तारक आदि धर्म साधनों के द्वारा सेवा करना। रोगादि के समय में दवा आदि के द्वारा परिचर्या करना। उपसर्ग के समय देखभाल करना ।। ५५६॥ ९ ब्रह्मचर्य गुप्ति१. वसति - स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित वसति में रहना। स्त्रियाँ दो प्रकार की हैं—देवी व मानुषी । इन दोनों के दो-दो भेद हैं—सचित्त और अचित्त । सचित्त अर्थात् सजीव स्त्री । अचित्त—चित्रलिखित व मूर्तिरूप स्त्री। पशु-गाय, भैंस, घोड़ी आदि जिनके मैथुन की सम्भावना है। पण्डक नपुंसक महामोहनीय कर्म के उदयवाले, स्त्री व पुरुष दोनों के सेवन की अभिलाषा वाले। इन तीनों से व्यस्त वसति में साधु को नहीं रहना चाहिये। क्योंकि उनकी चेष्टायें देखकर साधु के भी मनोविकार पैदा होने की सम्भावना रहती है। इससे ब्रह्मचर्य दूषित होता है। २. स्त्री कथा - (i) केवल स्त्रियों के सम्मुख धर्मोपदेश न देना। - (ii) स्त्री से सम्बन्धित चर्चा न करना। स्त्री सम्बन्धी कथा जैसे कर्णाटक की स्त्री काम-क्रीड़ा में निपुण होती है। लाटी स्त्री कौशल प्रिय होती है आदि चर्चा मुनि को नहीं करना चाहिये। रागपोषक स्त्री कथा जैसे, स्त्री के देश, जाति, कुल, वेशभूषा, भाषा, गति, विलास, गीत, हास्य, क्रीड़ा, कटाक्ष, प्रणय सम्बन्धी कलह तथा शृंगार रसपूर्ण कथा मुनियों के मन को भी विकारी बना देती है अत: ऐसी कथायें मुनियों को नहीं करना चाहिये। ३. आसन - स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठना। जिस स्थान पर स्त्री बैठी हो, उस स्थान पर एक मुहूर्त तक (४८ मिनट तक) ब्रह्मचारी न बैठे। स्त्री के उपयोग में लिये गये आसन पर बैठने से, स्पर्शदोष के कारण मन चंचल होने की सम्भावना रहती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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