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________________ द्वार६६ २५८ संरम्भ समारम्भ आरम्भ १०. अजीव संयम कार्य करने का संकल्प करना। संकल्प के अनुसार कार्य के उपयोगी साधन जुटाना । कार्य करना। - प्रमादादि दोषों के कारण जिनकी बुद्धि, आयु, श्रद्धा, संवेग, बल आदि हीन हैं, ऐसे शिष्यों के अनुग्रह के लिये पुस्तक आदि रखना पड़े तो प्रमार्जना, प्रतिलेखनापूर्वक रखना। - दृष्टि से देखकर सचित्त बीज, जंतु आदि से रहित भूमि पर शयन, आसन, गमन आदि करना। - पाप व्यापार करते हुए गृहस्थ की उपेक्षा करना। उसे यह नहीं कहना कि 'तुम जो ग्राम चिन्तादि कर रहे हो, उसे उपयोगपूर्वक ११. प्रेक्षा संयम १२. उपेक्षा संयम करना।' अथवा (अन्यमते) - प्रेक्षा संयम – संयम में शिथिल होते हुए साधु को दृढ़ होने की प्रेरणा देना । उपेक्षा संयम -- पार्श्वस्थ आदि की क्रियाओं के प्रति उपेक्षा रखना। १३. प्रमार्जना संयम - दृष्टि से देखी हई वसति की प्रमार्जना करके ही शयन आदि करना । वस्त्र, पात्रादि की प्रमार्जना करके ही उठाना और रखना। गाँव में प्रवेश करते या निकलते काली मिट्टी के प्रदेश से पीली मिट्टी के प्रदेश में प्रवेश करते या निकलते समय सचित्त-अचित्त या मिश्ररज से भरे हुए पैरों की प्रमार्जना करना अन्यथा गाँव की अचित्त रज से पैरों में लगी सचित्तरज के जीवों का उपघात होगा। (किन्तु गृहस्थ के देखते पद-प्रमार्जना नहीं करना) । पायाई सागरिए अपमज्जित्तावि संजमो होइ। ते चेव पमज्जंतेऽसागरिए संजमो होइ ।। कहा है कि-गृहस्थ के देखते पाँव की प्रमार्जना नहीं करना ही संयम है और गृहस्थ न हो तब पाँव की प्रमार्जना करना संयम है। १४. परिष्ठापनासंयम - जीवाकुल, अविशुद्ध व अनुपकारी, भात-पानी, वस्त्र-पात्र आदि को जीव रहित स्थान में विधिपूर्वक परठना । १५. मन संयम - द्रोह-ईर्ष्या, अभिमान आदि से निवृत्त होकर धर्म-ध्यान, शुक्ल ध्यान में प्रवृत्त होना। १६. वचन संयम हिंसक और कठोर भाषा से निवृत्ति तथा शुभ-मधुर वचनों का प्रयोग करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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