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________________ प्रवचन-सारोद्धार २५७ 180055555200402:: - 25 संयम = नये कर्मों को आते हुए रोकना (आस्रवविरति)। सत्य = मृषावाद विरति। शौच = निरतिचार संयम का पालन । आकिंचन्य = शरीर, धर्मोपकरण आदि में ममत्व का अभाव । ब्रह्मचर्य = नवविध ब्रह्मचर्य की गुप्ति से युक्त ब्रह्मचर्य का पालन । अन्यमते खंती मुत्ती अज्जव मद्दव तह लाघवे तवे चेव। संजम चियागऽकिंचन, बोद्धव्वे बंभचेरे य॥ (i) लाघव = द्रव्यत: = अल्प उपधि रखना। भावत: = गौरवादि का त्याग करना। (ii) त्याग = सर्व परिग्रह का त्याग, साधु आदि को वस्त्रादि का दान देना ॥ ५५३ ॥ १७ प्रकार का संयम ५. कर्मबंध के हेतुभूत प्राणातिपातादि आस्रवों की विरति ५. इन्द्रिय निग्रह (शब्दादि विषयों के प्रति अत्यन्त राग न करना) ४ कषाय पर विजय (उदयगत को विफल करना, अनुदित को रोकना) ३ दण्ड = अविवेकपूर्वक प्रवृत्त मन, वचन, काया दण्ड कहलाते हैं, क्योंकि वे आत्मा के चारित्ररूप ऐश्वर्य के नाशक हैं। इन तीनों की अशुभ प्रवृत्ति का निरोध करना । ५५४ ॥ अन्य प्रकार से १-९ जीव संयम-पृथ्वीकायादि ९ (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय) का तीन योग (मन, वचन, काया) और तीन करण (करना, कराना और अनुमोदना) से संरम्भ, समारंभ और आरम्भ का त्याग करना यह नव प्रकार का जीव संयम है। १. मन से पृथ्वीकाय आदि का संरम्भ न करना। २. मन से पृथ्वीकाय आदि का संरम्भ न कराना । ३. मन से पृथ्वीकाय आदि के संरम्भ का अनुमोदन न करना। ४. वचन से पृथ्वीकाय आदि का संरम्भ न करना । ५. वचन से पृथ्वीकाय आदि का संरम्भ न कराना । ६. वचन से पृथ्वीकाय आदि के संरम्भ का अनुमोदन न करना । ७. काया से पृथ्वीकाय आदि का संरम्भ न करना। ८. काया से पृथ्वीकाय आदि का संरम्भ न कराना। ९. काया से पृथ्वीकाय आदि के संरम्भ का अनुमोदन न करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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