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द्वार ६६
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- (iv) गृहस्थ के द्वारा दी गई वस्तु, आहार आदि गुरु की आज्ञा
के बिना ग्रहण करना गुरु अदत्त है। ४. मैथुन विरति
- मैथन से विरति ब्रह्मचर्य है। ५. परिग्रह विरति
नवविध परिग्रह से विरति 'अपरिग्रह' है । (विरति: मूर्छापरिहारेण निवृति:) जो ग्रहण किया जाय वह परिग्रह है, जैसे धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु, रूप्य, सुवर्ण, चतुष्पद, द्विपद और कुप्य। मात्र द्रव्य का त्याग करना ही अपरिग्रह नहीं है, किन्तु मूर्छा का त्याग करना ही सच्चा 'अपरिग्रह' है। आत्मसाधना में साधनभूत वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों को रखते हए भी निर्मम एवं अनासक्त होने से मुनि अपरिग्रही व प्रशम-सुख के भागी हैं और जिनके पास कुछ भी नहीं है, पर आसक्ति के कारण चिन्ताग्रस्त रहने से वे सदा दुःखी हैं। कहा है-'धर्म के साधनभूत, संयम में उपकारी, वस्त्र-पात्र आदि नि:स्पृह मुनि के लिए परिग्रह रूप नहीं होते जैसे शरीर (शरीर में मूर्छा न होने से जैसे वह परिग्रह
रूप नहीं होता)।' महाव्रतं
- महान् है जो व्रत वह महाव्रत। सभी जीवादि विषयक होने से
महान् है। • पहला महाव्रत सर्वजीवविषयक हिंसा की विरतिरूप है। • दूसरा और पाँचवाँ महाव्रत सर्वद्रव्यविषयक है। • शेष महाव्रत विशेषद्रव्यविषयक है।
दव्वओणं पाणाइवाए छसु जीवनिकायेसु दव्वओणं मुसावाए सव्वदव्वेसु
दव्वओणं परिग्गहे सव्वदव्वेसु (पक्खी सूत्र) ये मुनियों के पाँच महाव्रत हैं। चार नहीं, क्योंकि प्रथम व अन्तिम जिन के शासन में पाँच ही महाव्रत होते हैं ॥ ५५२ ॥ १०. श्रमणधर्म: शान्ति ___= क्षमा, क्रोध का अभाव । शक्ति हो या न हो, पर सहन करना। मार्दव
= नम्रता, गर्व का अभाव। आर्जव = माया का अभाव। सरलता रखना। मुक्ति = बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह के प्रति तृष्णा का अभाव । तप
= जिससे आत्मा पर लगे हुए कर्म विगलित हों (१२ प्रकार)।
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