SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचन - सारोद्धार २५५ (ii) अनुदीर्ण क्रोधादि के उदय को रोकना, क्षमा नम्रता आदि है । यह बताने के लिये श्रमणधर्म और क्रोधादि निग्रह को अलग से ग्रहण किया। अथवा वस्तु तीन प्रकार की है- (i) ग्राह्य (ii) हेय और (iii) उपेक्षणीय । (i) क्षमा आदि ग्राह्य हैं, (ii) क्रोधादि हेय हैं अत: उनका निग्रह करना चाहिये । यह दिखाने के लिए क्रोधादि निग्रह को अलग से ग्रहण किया । इस प्रकार सारे विकल्प समाहित हो जाते हैं ।। ५५१ ॥ पाँचव्रत१. प्राणातिपात विरति २. मृषा - विरति अज्ञान, संशय, विपर्यय, द्वेष, स्मृतिभंग, योग दुष्प्रणिधान, राग, धर्म का अनादर, इन अष्टविध प्रमादवश त्रस व स्थावर जीवों का वध करना - प्राणातिपात है और उसका त्याग प्राणातिपात विरति अर्थात् सम्यक् ज्ञान व श्रद्धापूर्वक निवृत्ति प्रथम व्रत है । प्रिय, पथ्य और तथ्य वचन बोलना । Jain Education International प्रिय = सुनने में मधुर । पथ्य = जिसका परिणाम हितकर हो । तथ्य = सत्य । बात सत्य है, किंतु अप्रिय है, जैसे चोर को कहना “ तूं चोर है ।" कोढ़ी को कहना “तूं कोढ़ी है।” असत्य कहलाता है । सत्य होने पर भी जो अहितकर है, जैसे शिकारी ने पूछा कि "तुमने इधर से हरिण को जाते हुए देखा और देखने वाला कहे कि “हाँ, देखा।" इस प्रकार का कथन हिंसा का कारण होने से सत्य होते हुए भी असत्य ही है । इस प्रकार असत्य की निवृत्ति दूसरा व्रत है। ३. अदत्त विरति मालिक की आज्ञा के बिना वस्तु ग्रहण करना। इसके चार भेद हैं--- 1 स्वामी- अदत्त, जीव-अदत्त, तीर्थंकर - अदत्त और गुरु- अदत्त | (i) मालिक की आज्ञा के बिना तृणादि ग्रहण करना । (ii) स्वामी की आज्ञा हो, किंतु जिस जीव से सम्बन्धित वस्तु है, वह जीव देना नहीं चाहता हो और उसे ग्रहण करना जीव अदत्त है । जैसे दीक्षार्थी की इच्छा दीक्षा ग्रहण की न हो और माता-पिता जबर्दस्ती उसे गुरु को देना चाहे या सचित्त मिट्टी आदि देना चाहे। यहाँ मालिक की आज्ञा है, किंतु जीव की आज्ञा नहीं है । (iii) तीर्थंकर परमात्मा के द्वारा निषिद्ध आधाकम आदि आहार का ग्रहण करना तीर्थंकर अदत्त है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy