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द्वार ६६
दाता
तप १२
- अनशनादि तप। क्रोधादिनिग्रह ४ - क्रोध-मान-माया-लोभ आदि का निग्रह ।
प्रश्न–ब्रह्मचर्य की गुप्तियाँ चौथे व्रत के अन्तर्गत ही आ जाती हैं, उन्हें अलग से क्यों कहा? यदि चौथे व्रत की गुप्तियाँ व्रत से अलग हैं तो अन्य व्रतों की गुप्तियाँ भी अलग होंगी और उन्हें भी अलग से बताना होगा। अत: चौथे व्रत की गुप्तियाँ अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है। यदि गुप्तियाँ बतानी हैं तो चौथे व्रत को अलग से बताना व्यर्थ है।
उत्तर—चौथे व्रत में किसी भी प्रकार का अपवाद नहीं होता। यह बताने के लिए ब्रह्मचर्य की गुप्तियाँ अलग से बताई गई। चौथे व्रत के सिवाय भगवान ने एकान्तत: न तो किसी का निषेध किया है, न किसी की अनुमति दी है। मात्र अब्रह्म का ही एकान्त से निषेध किया है। क्योंकि बिना राग के अब्रह्म का सेवन नहीं होता। अथवा प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर परमात्मा के शासन में चौथा व्रत, पाँचवें व्रत से सर्वथा भिन्न है यह बताने के लिए चौथा व्रत और उसकी गुप्तियाँ अलग से बताये गये हैं।
प्रश्न –यहाँ ज्ञानादि-त्रिक के स्थान पर, ज्ञान-दर्शन दो ही लेना चाहिये, क्योंकि चारित्र व्रतों में आ ही गया है?
उत्तर—चारित्र के सामायिकादि पाँच प्रकार हैं। व्रत रूप चारित्र उनका एक अंश है। व्रतरूप चारित्र लेने वाला पंचविध चारित्र का एक अंश ही ग्रहण करता है। चार प्रकार का चारित्र ग्रहण करना उसके लिए शेष रह जाता है। इसलिये ज्ञानादि-त्रिक कहा ताकि पाँचों चारित्र का ग्रहण हो जाय।
प्रश्न—संयम और तप अलग से नहीं कहना चाहिये, क्योंकि श्रमणधर्म में संयम और तप दोनों आ जाते हैं?
उत्तर–संयम और तप मोक्ष के प्रधान अंग होने से इन्हें अलग से कहना आवश्यक है। प्रश्न–संयम और तप मोक्ष के प्रधान अंग किस प्रकार है?
उत्तर-नवीन कर्म बंधन से आत्मा को बचाने वाला संवर रूप संयम है और पूर्वसंचितकर्म को क्षय करने वाला तप है। जैसे कहा जाता है कि “ब्राह्मण आये, वशिष्ठ भी आये हैं।" यहाँ 'वशिष्ठ का आना' अलग से कहने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वशिष्ठ भी ब्राह्मण है, अत: ब्राह्मणों के आने से वशिष्ठ का आना भी समझा जा सकता है, फिर अलग से कहना उनकी प्रधानता का सूचक है।
प्रश्न—'वैयावृत्य' तप के अन्तर्गत आ जाता है फिर उसका अलग से ग्रहण क्यों किया?
उत्तर—अनशन आदि तप केवल अपना ही उपकार करते हैं किन्तु वैयावृत्य ऐसा नहीं है। यह स्व और पर दोनों का उपकारी है। यह भेद बताने के लिए वैयावृत्य को अलग से कहा।
प्रश्न—क्रोधादि का निग्रह श्रमणधर्म (दशविध यतिधर्म) के अन्तर्गत आ जाता है, अत: उन्हें अलग से क्यों कहा?
उत्तर-क्रोधादि के दो प्रकार हैं- (i) उदीर्ण और (ii) अनुदीर्ण । (i) उदीर्ण क्रोधादि को रोकना, यह क्रोधादि निग्रह है।
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