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प्रवचन-सारोद्धार
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-गाथार्थ· चरण के ७० भेद-व्रत, श्रमणधर्म, संयम, वैयावच्च, ब्रह्मचर्य की गुप्ति, ज्ञानादित्रिक, तप, क्रोधादि का निग्रह- ये चरण के ७० भेद हैं ।।५५१ ।।
१. प्राणिवधविरमण, २. मृषावादविरमण, ३. अदत्तादानविरमण, ४. मैथुनविरमण एवं परिग्रहविरमण-ये पाँच साधु के महाव्रत हैं ।।५५२॥
१. क्षमा, २. मृदुता, ३. ऋजुता, ४. मुक्ति, ५. तप, ६. संयम, ७. सत्य, ८. शौच, ९. आकिंचन्य और १०. ब्रह्मचर्य- ये दस साधु के धर्म हैं ।।५५३ ॥
पाँच आश्रवों की विरति, पाँच इन्द्रियों का निग्रह, चार कषायजय और त्रिदंड की विरति-यह सत्रह प्रकार का संयम है ।।५५४ ॥
अथवा पृथ्वी, जल, आग, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, अजीव, प्रेक्षा, उपेक्षा, प्रमार्जना, परिस्थापना, मन-वचन-काया की शुभ परिणति-यह भी सत्रह प्रकार का संयम है ।।५५५ ।।
१. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. तपस्वी, ४. शैक्षिक, ५. ग्लान, ६. साधु, ७. समनोज्ञ, ८. संघ, ९. कुल और १०. गण-इन दस की वैयावच्च करना ।।५५६॥
१. वसति, २. कथा, ३. निषद्या, ४. इन्द्रिय, ५. कुड्यंतर, ६. पूर्वक्रीड़ा, ७. प्रणीताहार, ८. अति आहार और ९. विभूषा का त्याग- ये ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियां हैं ।।५५७ ।।
१. बारह अंगादि ज्ञान है। २. तत्त्व और अर्थ के प्रति श्रद्धा रखना दर्शन है। ३. पाप व्यापार का देशत: या सर्वत: त्याग करना चारित्र है ।।५५८ ।।
. १. अनशन, २. उनोदरी, ३. वृत्तिसंक्षेप, ४. रसत्याग, ५. कायक्लेश, ६. संलीनता- ये बाह्यतप हैं ।।५५९ ॥
१. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वैयावच्च, ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान और ६. कायोत्सर्ग-ये छ:आभ्यन्तर तप हैं ।।५६० ।।।
१. क्रोध, २. मान, ३. माया, और ४. लोभ-ये चार कषाय हैं। इनका निग्रह करना कषायजय है। इस प्रकार चरण के ७० भेद होते हैं ।।५६१ ।
-विवेचन व्रत ५
- प्राणातिपात विरमण आदि । श्रमण धर्म १० - क्षमा आदि श्रमण अर्थात् साधु के धर्म । संयम १७
- पाप कार्यों से पीछे हटना । वैयावच्च १० --- आचार्य आदि के कार्य में सहायक बनना । बंभगुत्ति ९
- नवविध ब्रह्मचर्य का रक्षण। ज्ञानत्रिक ३
ज्ञान, दर्शन, चारित्र ।
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