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________________ प्रवचन-सारोद्धार २९ स 0 :330000008 अट्ठारह साभारक या उससे भी कम मूल्य वाला वस्त्र जघन्य होता है। इन दोनों के मध्य का वस्त्र मध्यम कोटि का माना जाता है। मुनि के लिये अल्प मूल्य का वस्त्र ही ग्रहण करने योग्य है। ११२वें द्वार में शय्यातर पिण्ड अर्थात् जिसने निवास के लिये स्थान दिया हो उसके यहाँ से भोजन ग्रहण करना निषिद्ध माना गया है। इसी क्रम में अट्ठारह प्रकार के शय्यातरों का उल्लेख भी हुआ है। ११३वें द्वार में श्रुतज्ञान और सम्यक्त्व के पारस्परिक सम्बन्ध की चर्चा हुई है। ११४वें द्वार में पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थों का पाँच प्रकार के ज्ञानों से और चार प्रकार की गतियों से सम्बन्ध बताया गया है। ११५वे द्वार में जिस क्षेत्र में सूर्य उदित हो गया है उस क्षेत्र से गृहीत अशन आदि ही कल्प्य होता है शेष कालातिक्रान्त कहलाता है, जो अकल्प्य (अग्राह्य) है। ११६३ द्वार में यह बताया गया है कि दो कोस से अधिक दूरी से लाया गया भोजन-पान क्षेत्रातीत कहलाता है और यह मुनि के लिये अकल्प्य है। र ११७वें द्वार में यह बताया गया है कि प्रथम प्रहर में लिया गया भोजन-पान आदि तीसरे प्रहर तक भोज्य होते हैं उसके बाद वे कालातीत होकर अकल्प्य हो जाते हैं। ११८वे द्वार में पुरुष के लिये बत्तीस कवल भोजन ही ग्राह्य माना गया है बत्तीस कवल से अधिक भोजन प्रमाणातिक्रान्त होने से अकल्प्य माना गया है। ११९वें द्वार में चार प्रकार के निवास स्थानों को दुख शय्या बताया गया है। इसी प्रसंग में यह भी स्पष्ट किया गया है कि जिन स्थानों पर अश्रद्धालु जन रहते हों, जहाँ पर दूसरों से कुछ प्राप्ति के लिये प्रार्थनायें की जाती हो, जहाँ मनोज्ञ शब्द, रूप अथवा भोजन आदि मिलते हों और जहाँ गात्राभ्यंगन अर्थात् मर्दन आदि होता हो, वे स्थान मुनि के निवास के अयोग्य हैं। १२०३ द्वार में इसके विपरीत चार प्रकार की सुख शय्या अर्थात् मुनि के निवास के योग्य माने गये हैं। १२१वें द्वार में तेरह क्रियास्थानों की, १२२वें द्वार में श्रुतसामायिक, दर्शनसामायिक, देशसामायिक और सर्वसामायिक-ऐसी चार प्रकार सामायिक की, और १२३वें द्वार में अट्ठारह हजार शीलांगों की चर्चा है। पुन: १२४वें द्वार में सात नयों की चर्चा की गई है। जबकि १२५वें द्वार में मुनि के लिये वस्त्र-ग्रहण की विधि बतायी गयी है। १२६वें द्वार में आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत—ऐसे पाँच व्यवहारों की चर्चा है। १२७वें द्वार में निम्न पाँच प्रकार के यथाजात का उल्लेख है। (१) चोलपट्ट, (२) रजोहरण, (३) और्णिक, (४) क्षौमिक और (५) मुखवस्त्रिका। इन उपकरणों से ही श्रमण का जन्म होता है। अत: इन्हें यथाजात कहा गया है। १२८वें द्वार में मुनियों के रात्रि-जागरण की विधि का विवेचन है। उसमें बताया गया है कि प्रथम प्रहर में आचार्य, गीतार्थ और सभी साधु मिलकर स्वाध्याय करें। दूसरे प्रहर में सभी मुनि और आचार्य सो जायें और गीतार्थ मुनि स्वाध्याय करें। तीसरे प्रहर में आचार्य जागृत होकर स्वाध्याय करें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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