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________________ ३० भूमिका और गीतार्थ मुनि सो जायें। चौथे प्रहर में सभी साधु उठकर स्वाध्याय करें। आचार्य और गीतार्थ सोये रहें क्योंकि उन्हें बाद में प्रवचन आदि कार्य करने होते हैं। १२९वें द्वार में जिस व्यक्ति के सामने आलोचना की जा सकती है उसको खोजने की विधि बताई गई है। १३०वें द्वार में प्रति-जागरण के काल के सम्बन्ध में विवेचन किया गया है। १३१वें द्वार में मुनि की उपधि अर्थात् संयमोपकरण के धोने के काल का विवेचन है इसमें यह बताया गया है कि किस उपधि को कितने काल के पश्चात् धोना चाहिये। १३२वें द्वार में साधु-साध्वियों के आहार की मात्रा कितनी होना चाहिये, इसका विवेचन किया गया है। सामान्यत: यह बताया गया है कि मुनि को बड़े आंवले के आकार के बत्तीस कौर और साध्वी को अट्ठावीस कौर आहार ग्रहण करना चाहिये। १३३वे द्वार में वसति अर्थात् मुनि के निवास स्थान की शुद्धि आदि का विवेचन किया गया है। मुनि के लिये किस प्रकार का आवास ग्राह्य होता है, इसकी विवेचना इस द्वार में की गई है। १३४वें द्वार में संलेखना सम्बन्धी विधि-विधान का विस्तृत विवेचन किया गया है। १३५वे द्वार में यह बताया गया है कि नगर की कल्पना पूर्वाभिमुख वृषभ के रूप में करे। उसके पश्चात् उसे उस वृषभ रूप कल्पित नगर में किस स्थान पर निवास करना है, इसका निश्चय करे। इसमें यह बताया गया है-किस अंग/क्षेत्र में निवास करने का क्या फल होता है, इसकी भी चर्चा है। १३६३ द्वार में किस ऋतु में किस प्रकार का जल कितने काल तक प्रासुक रहता है और बाद में सचित्त हो जाता है, इसका विवेचन किया गया है। सामान्यतया यह माना जाता है कि उष्ण किया हुआ प्रासुक जल ग्रीष्म ऋतु में पाँच प्रहर तक, शीत ऋतु में चार प्रहर तक और वर्षा ऋतु में तीन प्रहर तक प्रासुक (अचित्त) रहता है और बाद में सचित्त हो जाता है। यद्यपि चूना डालकर अधिक समय तक उसे प्रासुक रखा जा सकता है। १३७वे द्वार में पशु-पक्षी आदि तिर्यञ्च-जीवों की मादाओं के सम्बन्ध में विवेचन किया गया है। १३८वें द्वार में इस अवसर्पिणी काल में घटित हुए दस प्रकार के आश्चर्यों जैसे महावीर के गर्भ का संहरण, स्त्री-तीर्थंकर आदि का वर्णन किया गया है। १३९३ द्वार में सत्य, मृषा, सत्य-मृषा (मिश्र) और असत्य-अमृषा ऐसी चार प्रकार की भाषाओं का उनके अवान्तर भेदों और उदाहरणों सहित विवेचन किया गया है। १४०वाँ द्वार वचन षोडसक अर्थात् सोलह प्रकार के वचनों का उल्लेख करता है। १४१वें द्वार में मास पंचक और १४२वें द्वार में वर्ष पंचक का विवेचन है। १४३वें द्वार में लोक के स्वरूप (आकार-प्रकार) का विवेचन है ।इसी क्रम में यहाँ लोक पुरुष की भी चर्चा की गई है। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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