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________________ भूमिका (१) आलोचना, (२) प्रतिक्रमण, (३) आलोचना सहित प्रतिक्रमण, (४) विवेक, (५) व्युत्सर्ग, (६) तप, (७) छेद, (८) मूल, (९) अनवस्थित (उपस्थापन) और (१०) पाराञ्चिक । २८ ९९वें द्वार में ओघ सामाचारी अर्थात् सामान्य सामाचारी का विवेचन है, यह विवेचन औघनिर्युक्ति में प्रतिपादित समाचारी पर आधारित है । १००वें द्वार में पदविभाग सामाचारी का उल्लेख है। ज्ञातव्य है कि छेदसूत्रों में वर्णित सामाचारी पदविभागसमाचारी कहलाती है । १०१वें द्वार में चक्रवाल सामाचारी का विवेचन किया गया है। चक्रवाल सामाचारी इच्छाकार, मिथ्याकार आदि दस प्रकार की है । यह सामाचारी उत्तराध्ययन और भगवती सूत्र में भी वर्णित है प्रस्तुत कृति में इस सामाचारी का विस्तृत विवेचन है 1 I १०२वें द्वार में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी का विवेचन किया गया है । १०३वें द्वार में गीतार्थ विहार और गीतार्थ आश्रित विहार का निर्देश है। इसी सन्दर्भ में यात्रा करते समय किस प्रकार की सावधानी रखना चाहिये इसका भी विवेचन किया गया है । ज्ञातव्य है कि आगम के साथ-साथ देश-काल और परिस्थिति का आकलन करने में समर्थ साधक गीतार्थ कहलाता 1 १०४वें द्वार में अप्रतिबद्ध विहार का निर्देश है। इसमें यह बताया गया है कि मुनि चातुर्मास काल में चार मास तक अन्य काल में एक मास तक एक स्थान पर रह सकता है, उसके पश्चात् सामान्य परिस्थिति में विहार करना चाहिए। १०५वें द्वार में जातकल्प और अजातकल्प का निर्देश है। श्रुतसम्पन्न गीतार्थ मुनि के साथ यात्रा करना जातकल्प है और इससे भिन्न अजातकल्प है। इसी क्रम में ऋतुबद्ध विहार को सम्मत विहार कहा गया है और इससे भिन्न विहार को असम्मत विहार कहा गया है। I १०६वें द्वार में मलमूत्र आदि के प्रतिस्थापन अर्थात् विसर्जन की विधि का विवेचन है । इसी प्रसंग में विभिन्न दिशाओं का भी विचार किया गया है । १०७वें द्वार में दीक्षा के अयोग्य अट्ठारह प्रकार के पुरुषों का उल्लेख किया गया है । इसी क्रम में १०८वें द्वार में दीक्षा के अयोग्य बीस प्रकार की स्त्रियों का भी उल्लेख किया गया है । १०९वें द्वार में नपुंसकों को और ११० वें द्वार में विकलांगों को दीक्षा के अयोग्य बताया गया है । नपुंसकों की चर्चा करते हुए टीका में उनके सोलह प्रकारों का उल्लेख हुआ है और सोलह प्रकारों में से दस प्रकार को दीक्षा के अयोग्य और छः प्रकार को दीक्षा के योग्य माना गया है 1 १११ वें द्वार में साधु को कितने मूल्य का वस्त्र कल्प्य ( ग्राह्य) है उसका विवेचन किया गया है। इसी प्रसंग में विभिन्न प्रदेशों और नगरों में मुद्रा विनिमय का पारस्परिक अनुपात क्या था, इसकी भी चर्चा हुई है। यहाँ यह भी बताया गया है कि एक लाख साभारक के मूल्य वाला वस्त्र उत्कृष्ट होता है और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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