________________
२४८
द्वार ६४
20335225555-26
- (iii) सम्यक्त्व और चारित्र से शिथिल बने हुए आत्मा को
पुन: स्थिर करना। (iv) चारित्रधर्म की निरन्तर वृद्धि हो इस प्रकार का आचरण करना, यथा अकल्प्य आहारादि का त्याग करना व कल्प्य
आहारादि ग्रहण करना इत्यादि । - क्रोधादि दोषों का नाश करने रूप विनय । यह चार प्रकार का
४. दोषपरिघात विनय
- (i) क्रुद्ध व्यक्ति को उपदेश देकर उसका क्रोध शान्त करना । - (ii) कषाय, विषयादि से कलुषित आत्मा के कषायादि दूर
करना। - (iii) दूसरों की भक्त-पान विषयक एवं परदर्शन विषयक
आकांक्षा को उपदेश द्वारा दूर करना।
- (iv) स्वयं क्रोध, कषाय, विषय और कांक्षा रहित प्रवृत्ति करना । इस प्रकार आचार्य की आठ संपदा है। प्रत्येक के चार-चार भेद होने से संपदा के बत्तीस भेद होते हैं, इनमें विनय के चार भेद मिलाने से ३२+४= आचार्य के ३६ गुण होते हैं ॥ ५४६ ॥ अथवा दूसरी तरह से भी आचार्य के ३६ गुण होते हैं।
१. ज्ञानाचार के आठ, २. दर्शनाचार के आठ, ३. चारित्राचार के आठ, ४. बाह्य तप के छ:, ५. आभ्यन्तर तप के छ:, इस प्रकार कुल ८+ ८+८+६+६= ३६
गुण हुए॥ ५४७॥ अथवा-इस तरह भी आचार्य के ३६ गुण होते हैं संपदा
= ८ (आचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मति, प्रयोग, संग्रह
परिज्ञा) स्थितकल्प
= १० (अचेल, औद्देशिक, शय्यातरपिंड, राजपिंड, कृतिकर्म, व्रत,
ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मासकल्प, पर्युषणाकल्प ) तप
= १२ (छ: बाह्य, छ: आम्यन्तर) आवश्यक
अथवा(१) देशयुत
- मध्यदेश में अथवा साढ़ा पच्चीस आर्य देश में उत्पन्न। आर्य
भाषा, ज्ञान, विज्ञान के ज्ञाता होने से शिष्य उनके पास सुखपूर्वक
अध्ययन कर सकते हैं। (२) कुलयुत
उत्तम कुल में उत्पन्न। कुलीनता के कारण स्वीकृत का अन्त तक निर्वाह कर सकते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org