SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४६ अन्यत्र ६. मतिसम्पत् ७. प्रयोगमति संपत् ८. संग्रहसंपत् Jain Education International - - --- ३. वाचना निर्यापयिता = प्रारंभ किये हुए ग्रन्थ को शिष्यों के उत्साहपूर्वक अन्त तक पूर्ण करने वाले । ४. निर्वाहणा = आगे पीछे के अर्थों को अच्छी तरह से सम्बद्ध करके अर्थ को समझाने वाले । परिणामिकादि बुद्धि युक्त शिष्य का उद्देश परिणामिकादि बुद्धि युक्त शिष्य को २. विदित्वाप्तमुद्देशनं समुद्देश करने वाले । ३. परिनिर्वाप्य वाचना = पहले दी गई वाचना की अच्छी तरह से परिणति कराने के बाद ही आगे वाचना देने वाले । आगे, पीछे के अर्थ की संगतिपूर्वक अर्थ ४. अर्थनिर्यापणा समझाने वाले । १. विदित्वोद्देशन करने वाले । = = द्वार ६४ = अवग्रहादि चार प्रकार की मति वाले । ९. अवग्रह, २. ईहा, ३. अपाय, ४. धारणा इनके अर्थ दो सौ सोलहवें द्वार में कहे जायेंगे ॥ ५४४ ॥ वादादि प्रयोजन के उपस्थित होने पर अपनी बुद्धि का उचित उपयोग करने वाले। इसके चार भेद हैं १. शक्ति - वाद करने से पूर्व 'मैं इस प्रतिवादी को जीतने में समर्थ हूँ या नहीं' इस प्रकार अपनी शक्ति तोल कर वाद करने वाले । २. पुरुषज्ञान -प्रतिवादी बौद्ध, सांख्य या वैशेषिक है, प्रतिभावान या अप्रतिभावान है, इसका पूर्ण विचार करके वाद करने वाले । ३. क्षेत्रज्ञान - यह मेरा क्षेत्र मायावियों की अधिकता वाला है या नहीं ? साधुओं से भावित है या अभावित ? इसका विवेक रखने वाले । ४. वस्तुज्ञान - यहाँ के राजा, मंत्री सभासद आदि सहृदय हैं, क्रूर हैं, सरलहृदय हैं या कठोर हैं, इसका भेद जानने वाले । योग्य क्षेत्रादि का संपादन करने में कुशल । इसके भी चार भेद हैं— १. गणयोग्यसंग्रह - संपत् - बाल, दुर्बल, रोगी तथा अधिक साधुओं का भी जहाँ निर्वाह हो सके, ऐसे क्षेत्र का संपादन करने में कुशल । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy