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द्वार ६४
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सम्यक्त्व दर्शन, ज्ञान और चारित्र इनके प्रत्येक के आठ-आठ भेद हैं। तप के १२ भेद हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर आचार्य के ३६ गुण होते हैं ।।५४७ ।।
अथवा आचार आदि आठ संपदा, दस प्रकार का स्थितकल्प, बारह प्रकार का तप और षड्विध आवश्यक–ये भी आचार्य के छत्तीस गुण हैं ।।।५४८ ॥
-विवेचन आचार्य और गणि एकार्थक हैं। गुण-समूह व साधु-समूह गण कहलाता है। गण से युक्त गणि अर्थात् आचार्य है। गणि की भाव-समृद्धि गणि-संपत् कहलाती है। इसके आठ भेद हैं१. आचार संपत्
- आचार विषयक संपदा-विभूति-वैभव अथवा आचार रूप संपदा
की प्राप्ति आचार-संपत् है। आगे भी इसी तरह अर्थ समझना।
आचार संपत् के चार भेद हैं(i) चरणयुत
चरण के सित्तर भेदों से युक्त मदरहित
जाति आदि आठ प्रकार के मदों से रहित (iii) अनियत वृत्ति - अप्रतिहत विहार करने वाला (vi) अचंचल - इन्द्रियजयी
यहाँ चरणयुत के स्थान पर 'संयमध्रुवयोगयुक्तता' ऐसा पाठ है। उसका अर्थ भी यही हैसंयम में सतत उपयुक्त । देखा जाय तो दोनों के भाव एक ही हैं।
'मदरहित' के स्थान पर 'असंपग्गह ' ऐसा पाठ है। यहाँ भी अर्थ वही है।
संप्रग्रह अर्थात् स्वयं को जाति, कुल, तप, श्रुत आदि के उत्कर्ष से युक्त मानना और असंप्रग्रह अर्थात् इनके उत्कर्ष-मद से रहित होना।
__ अचञ्चल के स्थान पर 'वृद्धशीलता' ऐसा पाठ है। उसका अर्थ है—जवानी में भी वृद्ध की तरह निर्विकार रहने वाले। कहा है-'विद्वान् लोग युवावस्था में भी मन से वृद्ध की तरह निर्विकार होते हैं। परन्तु मूढ़बुद्धि आत्मा वृद्धावस्था में भी युवा की तरह आचरण करते हैं।' २. श्रुत सम्पत्
- अतिशय ज्ञानविभूतिमान् । इसके चार प्रकार हैं१. युगप्रधानागम = जिसका आगम-ज्ञान युग में, अपने
समय में सर्वश्रेष्ठ है। २. परिचित सूत्र = अनेकबार क्रम या उत्क्रम से वाचना देने
के कारण जिनका सूत्रज्ञान अत्यन्त स्थिर हो चुका है। ३. उत्सर्गी = उत्सर्ग, अपवाद, स्वदर्शन और परदर्शन के
ज्ञाता। ४. उदात्तघोषादि = उदात्त, अनुदात्तादि स्वरों की विशुद्धि से
युक्त सूत्रोच्चारण करने वाले।
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