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________________ २४२ द्वार ६३-६४ पूर्वप्रतिपन्न - भावलिंग में अवश्य होते हैं, द्रव्यलिंग में होते भी हैं नहीं भी होते । अपहरण व जीर्णतादि कारण से द्रव्यलिंग छूट भी सकता १५. गणना द्वारप्रतिपद्यमान जघन्य से उत्कृष्ट से १, २ आदि शतपृथक्त्व (२०० से ९०० तक) पूर्वप्रतिपन्न सहस्रपृथक्त्व सहस्रपृथक्त्व (२००० से ९००० तक) (२००० से ९००० तक) उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व की अपेक्षा जघन्य संख्या में न्यून होता है। १६. कल्प द्वार जिनकल्पी के स्थित और अस्थित दोनों ही कल्प होते हैं। एक वसति में उत्कृष्ट से सात जिनकल्पी रह सकते हैं। सात रहते हुए भी उनका परस्पर बोलना, धर्म-चर्चा आदि करना सर्वथा निषिद्ध है। एक मोहल्ले में एक ही जिनकल्पी गौचरी जा सकता जिन = गच्छ से निर्गत साधु विशेष । कल्प = उनका आचार। अर्थात् साधना विशेष को लक्ष्य बनाकर गच्छ से निकले हुए साधु विशेष का आचार ‘जिनकल्प' है। उसका आचरण करने वाले जिनकल्पी हैं ॥ ५३९ ॥ ६४ द्वारः । आचार्य-गुण 98225668638 अट्ठविहा गणिसंपय चउग्गुणा नवरि हुंति बत्तीसं । विणओ य चउन्भेओ छत्तीस गुणा इमे गुरुणो ॥५४० ॥ आयार सुय सरीरे वयणे वायण मई पओगमई । एएसु संपया खलु अट्ठमिया संगहपरिण्णा ॥५४१ ॥ चरणजुओ मयरहिओ अनिययवित्ती अचंचलो चेव। जुगपरिचिय उस्सग्गी उदत्तघोसाइ विन्नेओ ॥५४२ ॥ चउरंसोऽकुंटाई बहिरत्तणवज्जिओ तवे सत्तो। वाई महुरत्तऽनिस्सिय फुडवयणो संपया वयणे ॥५४३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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