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प्रवचन-सारोद्धार
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क्योंकि उद्यान आदि में रहने वालों को गृहस्थविषयक पूछताछ की वैसे भी संभावना नहीं रहती। और भी जिनकल्पी की जो समाचारी है वे आचारविषयक ग्रंथों से जानना चाहिये। जिनकल्पी के स्वरूप को अच्छी तरह समझने में उपयोगी कुछ द्वार बताये जाते हैं१-१०. द्वार- १. तीर्थ द्वार । ६. अभिग्रह द्वार इन द्वारों को
२. पर्याय द्वार ७. प्रव्रज्या द्वार परिहार-विशुद्धि ३. आगम द्वार ८. निष्प्रतिकर्मता चारित्री की तरह समझना। ४. वेद द्वार
९. भिक्षा द्वार (देखें ६९वां द्वार) ५. ध्यान द्वार
१०. पथ द्वार ११. क्षेत्र द्वार
- जिनकल्पी जन्म की अपेक्षा १५ कर्मभूमि में होते हैं।
सद्भाव की अपेक्षा भी १५ कर्मभूमि में ही होते हैं।
संहरण की अपेक्षा अकर्मभूमि में भी हो सकते हैं। १२. काल द्वार
- अवसर्पिणी में जन्मत: तीसरे और चौथे आरे में । व्रत की अपेक्षा
तीसरे, चौथे व पाँचवें आरे में होते हैं। उत्सर्पिणी में जन्मत: दूसरे, तीसरे व चौथे आरे में होते हैं और व्रत की अपेक्षा से तीसरे, चौथे आरे में ही होते हैं।
अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी दोनों के प्रतिभागकाल (४थे आरे) में जन्म व सद्भाव से जिनकल्पी उपलब्ध होते हैं। कारण महाविदेह में जिनकल्पी होते है। संहरण की अपेक्षा सभी काल में उपलब्ध होते हैं।
. प्रतिभाग काल का अर्थ है, अपरिवर्तनशील काल जैसे महाविदेह में होता है। १३. चारित्र द्वार
– प्रतिपाद्यमान आत्मा, सामायिक व छेदोपस्थापनीय इन दो में ही
मिलते हैं। (अ) सामायिकी – प्रतिपाद्यमान मध्य के बाईस तीर्थकर के काल में एवं महाविदेह'
में होते हैं। पूर्व-प्रतिपन्न नहीं होते हैं। (ब) छेदोपस्थापनीय - प्रतिपद्यमान प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में होते हैं।
पूर्व-प्रतिपन्न, सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात चारित्र की अपेक्षा से होते हैं। उपशम श्रेणि प्रारंभ करने वाले जिनकल्पियों के ये दो चारित्र होते हैं। जिनकल्पी क्षपक श्रेणि नहीं कर सकता, क्योंकि उसे उस भाव में केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता। कहा
है-“तज्जम्मे केवल पडिसेहभावाओ" (पंचवस्तुक ग्रन्थे) १४. लिंग द्वार
- लिंग = रजोहरण आदि। प्रतिपद्यमान
- द्रव्यलिंग और भावलिंग दोनों में मिलते हैं।
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